गुरुवार, २३ जून, २०११

* धर्मांतर ने दलीतो को क्या दिया ? * लक्ष्मण माने * ८ दिस .२००९ *


मैं साम्यवादी आन्दोलन में ३० - ३५ सालो से ज्यादा समय से सामान्य कार्यकर्ता बनकर निकाल चूका हू | धर्मनिरपेक्ष ,विज्ञानवादी ,सेक्युलर ऐसे दोस्तों के साथ मैं २५ - ३० साल काम कर चुका हू | कुछ दिन पहले जब मैं और मेरे भटके विमुक्त समाज के दोस्तों ने बुद्ध धम्मदीक्षा लेने का निर्णय लिया तब बहोत से लोग सोच में पड गए | कुछ लोगो को ऐसा लग रहा था ये क्या लक्ष्मण का नयाही पागलपन है | कुछ लोग तो मजा लेने के इरादे से कहने लगे क्या लक्ष्मण अभी ' नमो तत्स ' मैं कहता था ' हा जैसा होगा वैसा '| एक कम्युनिस्ट नेता बहोत साल से मेरे मित्र थे | वे मुझे कहते थे " क्या होगा तुम्हारे धर्मांतर से ?" हम सब सेक्युलर लोग है धर्म के तरफ पीठ करके खड़े रहते है , अच्छा जिन्होंने बौद्ध धम्म का स्वीकार किया उनका भी क्या हुआ ? फिर तुम्हारे जाने से क्या होगा ? तब मैंने उनको शांति से उत्तर दिया | "हा हम सारे सेक्युलर , आप मराठा सेक्युलर ,भाई वैद्य ब्राम्हण सेक्युलर , बाबा आढाव मराठा सेक्युलर , जनार्दन वाघमारे माली सेक्युलर , जनार्दन पाटिल कुनबी सिक्युलर और मैं कैकाडी सेक्युलर ऐसा है हमारा सेक्युलारिझम | सेक्युलर बोलने में आपका क्या जाता है ? जातिके सब फायदे तुम्हारे थाली में गिरते ही है | उनका आपने कभी इनकार किया है ? समाज की वास्तविक प्रतिष्ठा जाती के सीडियों नुसारही मिलती हैं ना ? मैं अगर कैकाडी रहने वाला हू तो फिर तुम्हारा सेक्युलारिझम मेरे और मेरे समाज के क्या काम का ? और जो पहले धर्मान्तरित हुए अगर उनके बारे में आप पूछेंगे तो मैं आपको दो ही बाते पूछूंगा | "एक महार मुझे ऐसा दिखा दो जो मरे हुए जानवर खींचता हो और मरे हुए जानवर का मांस खाता हो मैं उसे एक लाख रूपये दूंगा और ऐसा महार बता दो जिसे बताना पड़े की तुम्हारे लड़के को स्कुल में भेजो | उसको भी एक लाख रूपये दूंगा "| "इस सवाल का जवाब मैंने कुछ मजाक के लिए दिया नहीं था " |" धम्मचक्र प्रवर्तन अभियान में भंडारा से कोल्हापुर तक मैं हर सभा में पूछता था , एक महार मुझे ऐसा दिखा दो की जो मरे हुए जानवर का मांस खाता हो या खिचता हो | मैं उसे एक लाख रूपये दूँगा | आज तक मुझे ऐसा महार मिला नहीं | "
क्या मतलब है इस घटना का ? किस परिस्थिति में बाबासाहब ने इस हिंदू धर्म का त्याग किया | (मुंबई इलाखा महार परिषद यह ऐतिहासिक परिषद मुंबई में ३०, ३१ में और १ व् २ जून १९३६ को चार दिन चली | " मुक्ति कौन पथे ?" इस नाम से बाबासाहब का भाषण प्रसिद्ध है |) १९३६ को बाबासाहब बोले थे , " सरकारी स्कूलों में लडको को दाखिल करने का हक बताने के पश्चात , कुओपर पानी भरने का हक बताने के पश्चात , बारात घोड़े से लेकर जाने का हक बताने के पश्चात , स्पृश्य हिन्दुओने मारने की बहोत सी घटनाए सब के आँखों के सामने हमेशा रहती है | महंगे कपडे पहनने के कारन , गहने पहनने के कारन , पानी लाने के लिए ताम्बा , पीतल के बरतन उपयोग में लेने के कारन , जमींन खरीदने के कारन , जानवे पहनने के कारण , मरे हुए जानवर न खींचने के कारन और मरे हुए जानवर का मांस न खाने के कारन , पैर में जुते और मोज़े पहनकर गाव में से जाने के कारन , मिले हुए स्पृश्य हिंदू को जोहार ना करने के कारन , शौच को जाते वक्त लोटे में पानी भरने के कारन , शादी के वक्त पंचो को रोटी परोसने के कारन , ऐसे बहोत से कारणों के लिए अमानुष अत्याचार , जुलुम किये जाते है | बहिष्कार डाला जाता है | समय पड़ने पर झोपडी ,या आदमी को जला डालने के वृत्ति का सामना करना पड़ता है | मनुष्यहानि होती है | मेहनत का पैसा नहीं देना | खेत में से जानवरों को जाने नहीं देना | आदमियों को गाव में आने नहीं देना वगैरा सब प्रकारकी बंदी करके स्पृश्य हिंदू लोगो ने अस्पृश्य हिंदू लोगो को ठिकाने पर लाने की घटनाओ की यादे आप में से बहोत से लोगो को होगी | परन्तु ऐसा क्यों होता है ? इसका कारन स्पृश्य और अस्पृश्य इन दो समाज में जो झगड़ा है वही है | एक आदमी पर हो रहे अन्याय का यह प्रश्न कदापि नहीं है | यह एक वर्ग ने दूसरे वर्ग पर किये जाने वाला अत्याचार है | यह वर्गकलह सामाजिक प्रतिष्ठा का कलह है | एक वर्ग ने दूसरे वर्ग से बरताव करते वक्त अपना बरताव कैसा रखना चाहिए इस सबंध का यह कलह है | इस कलह के जो उदहारण मैंने प्रस्तुत किये ; उससे एक बात खुलकर सिद्ध होती है ; वो यह की आप ऊपर के वर्ग से बरताव करते वक्त बराबरी के नाते से बरताव् करने का आग्रह करते हो इसलिए ही यह संघर्ष उपस्थित होता है | वैसा नहीं होता तो रोटी का खाना परोसने के कारन , महंगे कपडे पहनने के कारन , जानवे पहनने के कारन , ताम्बा , पीतल के लोटे में पानी लाने के कारन , घोड़े से बारात ले जाने के कारन यह झगडे हुए नहीं होते | जो अछूत रोटी खाता है ,महंगे कपडे पहनता है ,पीतल के बर्तन का उपयोग करता है , घोड़े पर बारात लेकर जाता है  वह ऊपर के जाती में से किसी का नुकसान नहीं करता | अपने ही पैसे का वह उपयोग करता है | ऐसा होते हुए भी ऊपर के जातियों को उसका घुस्सा क्यों आता है ? इस घुस्से का कारन एक ही है | वो यही की ऐसे समता का बरताव उनकी अप्रतिष्ठा को कारन बनाता है | आप निचे वाले लोग हो | अपवित्र हो | निचे की सीडी से ही आप रहोगे तो वे लोग आपको चैन से जीने देंगे | सीडी छोड़ी तो झगड़े को शुरूवात होती है | यह किस्सा निर्विवाद है | "
मैं बहोत छोटा था | तब मैंने देखा है , गाव गाव में महार लोगो की बस्तियों पर बहिष्कार हो रहे थे | आदमियों को गाव में आने नहीं दिया जाता था | पानी भरने के लिए बंदी थी | पिसाने की चक्की बंद हुआ करती थी | किराना माल के दूकान बंद हुआ करते थे | गाव गाव के महारो ने , मतलब पहले के दलित वर्ग ने बाबासाहब से धम्म दीक्षा ली थी | महाराकी , तरालकी , येस्करकी , सन्देश पहुचने का काम (अलग अलग जातियों के नीच काम ) करना बंद कर दिया था | पीढ़ी दर पीढ़ी से कर्तव्य समझकर गाव गाव में जो काम करने पड़ते थे वह फिर लकडिया फोड़ने का काम हो , सन्देश देने का , जानवर खींचने का यह सब कामो से इनकार कर दिया गया था | यह बहोत बड़ी बगावत थी | सेकडो सालो से घर में पूजने वाले ३३ कोटि ईश्वर की प्रतिमाए एक ही रात में नदियों में फेंक दी गयी थी | मरी माँ ,लक्ष्मी माँ के मंदिर निर्जन होने लगे थे | सारे काले धागे ,गले में की मालाए , सरपर के बाल सब फेक दिए गए थे | गाव गाव में , बस्ती बस्ती में बुद्ध वंदना गूंजने लगी थी | सब आखाडे , मंदिर , विट्ठलमंदिर का बुद्ध विहार में रूपांतर होने लगा | उनके नामो के आगे जाती ,धर्म जाकर "बौद्ध" लिखा गया | बच्चोके , मकानों के , गाव के , रास्तोके , संस्थाओ के नाम बदलने लगे | सारा समाज उत्साहित हो गया | साप ने अपने केंचुली फेक देना वैसे ही कैचुली फेंककर वो समाज उत्साहित होकर खड़ा हो गया | एक नयी अस्मिता लेकर यह समाज अन्याय , अत्याचार , जुलुम इनके विरोध में पैर गाडकर खड़ा हो गया | सब गुलामी के प्रतिक फेक दिए गए (काले धागे , कंबर में के धागे ,चांदी के गहने , गले में के गुलामी प्रतीत होने वाले गहने इ.) | बौद्ध कालीन इतिहास और संस्कृति का प्रतिबिम्ब सब तरफ दिखने लगा | मेरी पीढ़ी इस सब घटनाओ की साक्षी है | बौद्ध स्थापत्यकला नए मकानों पर विराजमान होने लगी | बुद्ध जयंती जोर शोर से बनाई जाने लगी | सब लोग दारू छोड़ने लगे | मेलो पर होने वाला बहोतसा खर्च , मुर्गी-बकरों की बलि देना , शरिर में बाबा आना इनके विरोधी वातावरण बनने लगा | विवाह समारंभ , नामकरण .अन्त्य विधि बदलने लगे | शादी अन्त्याविधि में का बाजा बजाना बंद होने लगा |  डफली , हल्गी जाने लगी | गाव की नोकरी गयी | समाज गाव से बहार जाने लगा | अंगारा धुपारा , बुवा-बाबा , पोतराज ने अपने शरीर के ऊपर के आई के कपडे नदी में फेक दिए | अपने मनुष्यत्व का शोध शुरू हुआ | गुलाम्रिरी के गहनों को छोड़ दिया गया | लोगो ने गाव छोडो शहरों के तरफ चलो यह मन्त्र स्वीकार कर लिया | और लोग गाव के नरक से इस गुलामी के कैद से आझाद होने लगे | ईश्वर के कैद से मुक्त होने लगे | कर्मकांड के लफडो से बहार पड़ने लगे | कल तक बदन में आने वाली मरी माँ नदी में विसर्जित की गयी इसलिए माँ का कोप ( घुस्सा ) हुआ नहीं | चुपचाप सब बदन में के ईश्वर भाग गए | लोग गुलामी से मुक्त होने लगे |
शिक्षित बनो , संघटित हो जाओ और संघर्ष करो यह मन्त्र मन ही मन में इस समाज ने स्वीकार लिया | इस समाज ने पढ़ने का ध्येय रख लिया | बोझा उठाऊंगा , खेत में काम पर जाऊंगा कुछ भी करूँगा पर मेरे लड़के को पढ़ाउंगा | डॉ.आंबेडकर का ध्येय सब समाज ने ले लिया | सबके बच्चे डॉक्टर ,इंजिनियर हुए ऐसा नहीं है पर सबने प्राथमिक पढाई जरुर की | आज इस समाज का शैक्षणिक प्रमाण ८६ %  इतना है | आज धर्मांतर के ५० साल बाद अड.शंकर खरात , डॉ.भालचंद्र मूनगेकर , और डॉ. नरेन्द्र जाधव ये महाराष्ट्र के नामवंत मुंबई , औरंगाबाद , पुणे इन विद्यापीठ के कुलगुरु है | यूनिवर्सिटी ग्रट कमिशनरके आज के अध्यक्ष डॉ. सुखदेव थोरात पुरे  देश के उच्च शिक्षण की धुरा संभाल रहे है | , और डॉ.भालचंद्र मूनगेकर प्लानिंग कमिशंन के सदस्य है | डॉ. रेद जाधव यह अंतरराष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्रज्ञ है | वे रिजर्व बैंक के सलाहगार के पद पर रह चुके है | सेकडो लोग पि.एच.डि. हुए है | हजारों डॉक्टर , इंजिनियर , आर्किटेक्ट , प्राध्यापक है | समाज का मुख्य भाग समझे जाने वाले आय.पि.एस.,आय.ए.एस . कितने ही इस अम्बेडकरी समाज से है | गर्व होना चाहिए ऐसा उच्चवर्ग , माध्यम वर्ग इस समाज में निर्माण हो चूका है | पहनावा , भाषा , मकान सब बदल चुका है | पहले के ज़माने में "रोटी दे ना माँई हमको" ये इतिहास में जमा हो चूका है | यु.पि.एस.सी. , एम.पि.एस.सी .इन सब परिक्षाओ में एक नम्बर पर ब्राम्हण है और दो नंबर पर पहले के महार और अभी के बौद्ध है | विद्वत्ता के सब क्षेत्रो में इन दो समाज में ही स्पर्धा शुरू है | सबसे ज्यादा ब्राम्हण लड़कियों ने पहले अछूत रहने वाले इस समाज के लडको से ही अंतर जातीय विवाह किये हुए दिखाई देते है | रोटी व्यव्हार की क्रान्ति तो हुई ही है पर बेटी व्यवहार की क्रान्ति भी इसी समाज में होती है | बेटी व्यवहार अपने बराबरी के आदमियों के साथ ही होता है | साहित्य के क्षेत्र में भी दलित साहित्य ने अपना स्वतंत्र इतिहास निर्माण किया है | कथा ,कविता , उपन्यास , नाटक , निबंध , चरित्र , प्रवास वर्णन और वैचारिक लेखन आदि क्षेत्र में के इनके कार्य से भले भले सरस्वती के सपूतो को मुह में ऊँगली डालनी पड़ जाती है | सिर्फ लिखा ही नहीं तो अपना वाचक वर्ग भी इन लोगो ने बड़े पैमाने पर निर्माण किया है | राष्ट्रिय , अंतरराष्ट्रीय ख्याति के बहोत से ग्रन्थ अभिमान और तेज से चमकने लगे है | दलित साहित्य , दलित महसूस , दलित आन्दोलन और अभी अम्बेडकरी आंदोलन यह देश के अन्य किसी भी प्रान्त में बना नहीं वह महाराष्ट्र में ही बना है | इसका कारन स्वत्व .स्वाभिमान ,स्वातंत्र्य , और अस्मिता इनकी बीजे जिस बाबासाहब ने लगाईं उस अम्बेडकरी भूमिमे देश का पहला साहित्य में का विद्रोह मराठी में ही हुआ | लोग मजाक में बोला करते है "ब्राम्हण ने मटन महंगा किया और दलितो ने किताबे "  "ब्राम्हण के घर लिखना , कुनबी के घर दाना और महार के घर गाना " ये आंबेडकर वादियों ने अभी मिटा दिया है | अब दलितो के घर लिखना और ब्राम्हणों के घर गाना ऐसा नया समीकरण अगर रखा जाये तो किसी को ऐतराज नहीं होगा | दीक्षाभूमि पर लगने वाली किताबो की दुकाने ,गाव -गाव भरने वाले साहित्य सम्मलेन और उस साहित्य सम्मलेन के बहार लगी हुई किताबो की दुकाने ,सीडी ,कैसेट्स ,इनकी दुकाने सचमुच आश्चर्यकारक विषय है | किसी तीर्थक्षेत्र पर हार , तुरे , मालाए , नारियल , सिंधुर ,  दुपट्टे, चादर यह रहता है | पर दीक्षाभूमि पर हजारों ग्रन्थ की भीड़ दिखाई देती है | हिंदू तीर्थक्षेत्र से हिंदू भाई ' गंगाजल ' लाते है | मुस्लिम भाई हज से 'आब -ए-जमजम ' लाते है | पर बौद्ध भाई दीक्षाभूमि से बुद्ध और बाबासाहब की ग्रन्थसंपदा और प्रतिमाए लाते है | जिस समाज को अक्षर बंदी थी , वो समाज ज्ञानकांक्षि बनाया बाबासाहब और बुद्ध धम्म के आंदोलन ने | यह ज्ञानकांक्षाही धम्म का सामर्थ्य है |
गाव छोड़कर शहरो के तरफ चलो यह मन्त्र बाबासाहब ने दिया | अंधकार युग का अंधकार कूप ( सीडिया न होने वाला कुवा ) साबित होने का डर पहचानकर बाबासाहब ने गाव को केंद्रबिंदु ना बनाते हुए | व्यक्तिको विकास का केंद्रबिंदु बनाया | डॉ.भाऊ लोखंडे इन्होने उनके एक लेख में खूबसूरती से बाबासाहब के गाव विषयक विचार दिए हुए है |
अ ) जब तक अछूत लोग गाव के बहार रहते है | जीनको उदरनिर्वाह का साधन नहीं , उनकी लोकसंख्या हिंदू के हिसाब में कम है , तब तक वे अछूत ही रहेंगे | हिन्दुओ का जुलुम और अत्याचार शुरुही रहेंगे और स्वतंत्र , समर्थ जीवन जीने के लिए वे असमर्थ ही रहेंगे |
ब )स्वराज्य मतलब हिंदू राज्य ही होगा | उस समय स्पुष्य हिन्दुओ के तरफ से होनेवाला जुलुम और अत्याचार बहोत बढ़ जाएँगे | उससे दलित वर्ग का ठीक तरह से संरक्षण होना चाहिए |
क ) दलित वर्ग के मानव का पूर्ण विकास हो | उन्हें आर्थिक और सामाजिक संरक्षण मिले , अस्पृश्यता का उच्चाटन हो इसलिए परिषद का पूरा विचारपूर्वक निर्णय हो चूका है की , भारत में प्रचलित ग्रामपद्धति में सम्पूर्ण बदलाव होना जरुरी है | क्योकि बीते हुए कितने सालो से स्पृश्य हिन्दुओ की तरफ से दलित वर्ग को जो अत्याचार सहना पड रहा है उसे यह ग्राम पद्धति ही जिम्मेदार हुई है | गाव की दलित बंधुओ की परिस्थिति याद करके बाबासाहब बहोत रोते थे | वे कहते थे ,"गाव में रहने वाले मेरे असंख्य दलितो की परिस्थिति में सुधारना करने का मेरा उद्देष सफल नहीं हो सका | इसलिए मेरा उर्वरित जीवन और मेरे पास का मेरा सामर्थ्य मैं गाव-गाव के अछूत  जनता के सर्वांगीण विकास के लिए खर्च करने का निश्चय कर चूका हू | जब तक वह गाव छोड़कर शहरों में रहने के लिए नहीं आयेंगे , तब तक उनकी जीवन पद्धति में सुधारना नहीं हो सकती | गाव में रहने वाले यह हमारे अछूतो को पूर्वजो के गाव में रहने का लोभ छूटता नहीं है | उनको लगता है , वहां हमारे रोटी की व्यवस्था है | पर रोटी से ज्यादा स्वाभिमान को अधिक महत्त्व है | जिस गाव में हमें कुत्ते जैसा बरताव किया जाता हो , जिस जगह पर हर कदम पर हमारा मानभंग होता हो , जहा अपमान का स्वाभिमान शून्य जीवन जीना पड़ता है वो गाव किस काम का ? गाव के इन अछूतोने वहां से निकल कर जहा पडी हुई जमींन होगी उस जगह पर अधिकार करके नए-नए गाव बसाकर स्वाभिमान पूर्ण , इंसानियत का जीवन जीना चाहिए | वहा नया समाज निर्माण करना चाहिए | वहा के सब काम उन्हाने ही करने चाहिए | ऐसे गावो में उन्हें कोई अछूत कहकर बरताव नहीं करेंगा | "
बीते ५० सालो में दो जातियों ने गाव छोड़े | एक बौद्ध और दूसरे ब्राम्हण दोनों शहरों में रहने लगे | पहले अछूत होने वाले दलितो को खेती के उत्पादन में कोई स्थान नहीं था | ब्राम्हण वंश कायदे की वजह से और ४८ के गाँधी हत्या के बाद गाव से शहरों के तरफ बढे | जातियों की बहुसंख्या अल्पसंख्या यह स्थिति डरावनी है | संविधान में एक आदमी एक मूल्य यह सिद्धांत बाबासाहब ने रखा होगा , वो संविधान ने स्वीकार किया होगा , संविधान ने स्वतंत्र-बंधुता-न्याय यह तत्व स्वीकार कीये होगे , फिर भी वास्तव में हिंदू नामकी चीज ही नहीं होती | वहां जातीया होती है और जाती ही राजकारण का रूप लेकर अल्पसंख्य ,बहुसंख्य साबित करती है इसलिए जतियोसे अल्पसंख्य व जतियोसे बहुसंख्य यही सूत्र सत्ता, सपत्ति और प्रतिष्ठा की पुनरचना में महत्त्व के होते है | इस परिस्थिति पर अल्पसंख्य जातियों ने गंभीरता से सोचने की जरुरत है , ऐसा मुझे लगता है | इस देश में जाती बदलते ही नहीं आती ऐसा रोज बताया जाता है | पर पहले के बौद्ध लोगो ने यह सिद्ध किया है की , जाती बदल सकती है ; उसका वास्तव भी बदलते आता है | अब जिन्होंने धर्म बदला नहीं उनकी क्या परिस्थिति है ? महाराष्ट्र के अछूतोमे पहले नंबर पर महार थे और दो नम्बर की संख्या पहले के मातंग समाज की है | अब अछूत कोई रहा नहीं | डॉ.बाबासाहब आंबेडकर ने कलम के एक फटके में अछूत व्यवस्था बदल डाली | इन दोनों के अलावा बाकि छोटी छोटी जातिया है , जो आज भी गाव में मौजूद है | उनकी स्थिति क्या है ? उनके साक्षरता का प्रमाण क्या है ? मातंग समाज में एक दो अपवादात्मक छोड़कर कोई भी आय.ए.एस अधिकारी नहीं है | अपवाद से ही कोई आय.पी.एस होगा | यही परिस्थिति बाकि परिक्षाओ की है | जिस जगह पर पहले के महारोने गाव छोड़ दिए | गाव की गुलामी छोड़ दी , वह सब काम मातंग समाज पर ढो दिए गए और उन्होंने वे स्वीकार कर लिए | इस वजह से एक दो % भी शिक्षित होगे की नहीं इसकी चिंता करनी चाहिए | सब मातंग , चमार ,ढोर , इन सबका शैक्षणिक विकास पिछले ५० सालो में कितना हुआ इसका स्वतंत्र अभ्यास होना चाहिए | डॉक्टर ,वकील ,प्राध्यापक ,इंजिनियर ,कलेक्टर ,कमिशनर इन समाज का प्रशासन यंत्रणा में क्या प्रमाण है ?  इसकी पूरी जानकारी की पढाई होने की जरुरत है |
आज अन्याय , अत्याचार सबसे ज्यादा हो रहे है वह मातंग समाज पर | मातंग लोग गाव में जो काम करते है वो डफली बजाना इतना भी ध्यान में लिया तो क्या समझता है ? डफली बजाने का पूर्वजो का धंदा उनको माथे पर मारा हुआ है | मातंग समाज खुद को हिंदू ही समझता है | उन्होंने हिंदू के त्योंहार, उत्सव में डफली बजाना ही चाहिए नहितो उसका परिणाम उन्हें भुगतना पडताही है | उन्होने डफली बजायी या नहीं बजायी फिर भी उसे बजरंग बलि के मंदिर में जाने नहीं दिया जाता | और गया तो मार बैठता ही है | अभी कुछ महीने पहले ही औरंगाबाद जिले में साकेगाव यहाँ के सुनील आव्हाड इन्होने पोला इस त्यौहार के दिन डफली बजाने के लिए इनकार कर दिए जाने पर उसे कुछ गाव के जतियवादी लोगो ने उसे ऊपर लटकाकर बहोत मारा | उनके घर पर धाबा बोल दिया और उनकी घास फूस से बनाई हुई दीवारे गिरा डाली | उसका छोटा भाई , पिताजी इनको भी लातो घुसो से मारा गया | जलगाव जिले में मुक्ताईनगर तहसील में कोथली नामक गाव के भाजप के विधानसभा गटनेता एकनाथ खलसे इनके लड़के ने पोला त्योंहार को डफली बजाने पर इनकार कर देने पर नीना अढायके इस मातंग नौजवान को बहोत मारा | उसके बच्चे और बीवी को भी मारा | इस दोनों घटनाओ में अन्याय करने वाले पोलिस पाटिल , सरपंच , और बाकि के लोग है | बिलकुल कुछ महीने पाहिले की घटना है | रोज कही ना कही ऐसी वारदाते होती ही रहती है | सब घटनाए रजिस्टर होती ही है ऐसा नहीं है |

डफली बजाना चाहिए की नहीं यह उस व्यक्ति के स्वतंत्रता का प्रश्न है | पर यह स्वातंत्र मातंग लोगो को है क्या ? सोलापुर जिले में चर्मकार बहन पर पाच छे महीने पाहिले ही जबरदस्ती हुई | क्या उसने किसीका घोड़ा मारा था ? वो हिंदू है अछूत है | और वह पाटिल बताएगा उस बात को हा नहीं बोलती तो दूसरा क्या होगा ? जब तक ये सब हिंदू रहेंगे तब तक उनपर ऐसे ही अन्याय होते रहेंगे | और वही स्थिति भटके विमुक्त लोगो की है | दलितो का बहिष्कृत भारत ! हमारा तो उध्वस्त भारत | हमारे तो मनुष्यत्व को अर्थ ही नहीं | स्वातंत्रता को ६० साल बीत गए पर हमारा शैक्षणिक प्रमाण ०.०६ % है | अन्न .वस्त्र ,मकान इन किसी सुविधाओं का तो हमें अभी तक स्पर्श ही नहीं | एक जगह पर यह समाज तिन दिन से ज्यादा रहता ही नहीं | इसलिए मतों के राजकारण में उनको कोई पूछता ही नहीं | अल्पसंख्य होना यह इनका गुनाह है | जबतक यह लोग लमान , कैकाडी , माँकडवाला , वडार ,कोल्हाटी रहेंगे तब तक यह लोकशाही तक पहुच ही नहीं सकते | लोकशाही में इनका कोइ प्रतिनिधि ना होने के कारण ६० साल में क्या स्थति हुई है ? यह हम देख ही रहे है | इसलिए जाती नष्ट करने के आलावा कोई पर्याय नहीं है | जिन्होंने जाती नष्ट की वो आगे गए | वे बौद्ध रहो , ख्रिश्चन रहो या मुस्लिम रहो | जिन्होंने अपनी जाती छोड़ी नहीं ,  जिन्होंने अपनी जाती की मानसिकता नहीं छोड़ी , वर्ण व्यवस्था की गुलामी नहीं छोड़ी वो जोर से पीछे जा रहे है | फिर वे मराठे हो ,माली हो या कुनबी हो | ब्राम्हण छोड़कर सब गरीब वर्ग जोर से पीछे जा रहे है | इन सब का गंभीर रूपसे विचार करने पर मैं और मेरे साथवाले दोस्तों ने तथागत गौतम बुद्ध और बाबासाहब ने बताया हुआ मार्ग स्वीकार किया है | सुविधाए मिले अथवा न मिले | हमें हमारे पैरों पर खड़ा होना ही पडेगा | क्योकि जो पैरों पर खड़े हुए वही आगे गए | लाचार केंचुओ ( Earthworm)  की फ़ौज की तरह जीने से अच्छा विद्रोही बनकर जीना और अस्मिता की खोज के लिए निकलना मुझे ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगता है |
 -लक्ष्मण माने (अनुवाद -अभिजीत गणेश भिवा )
(टिप -साथियों मैंने यह अनुवाद सिर्फ हिंदी समझने वाले लोगो के लिए किया है |अगर मेरे तरफ से कोई गलती हुई हो तो कृपया माफ़ करे | धन्यवाद .......)