मंगळवार, १८ ऑक्टोबर, २०११

बौद्ध और महार इस समाज का आंतरधर्मीय व आंतरजातीय विवाह

( मराठी साठी पुढील लिंक वर क्लिक करा .http://abhijitganeshb0.blogspot.com/2011/08/blog-post.html )
बहोत जरुरी मुद्दे पर विचार रखने का साहस कर रहा हू पर भविष्य पर दृष्टिक्षेप डालते हुए इस मुद्देपर इस समाज ने सोचना चाहिए ऐसा मुझे आवश्यक लगता है | पहले तो बौद्ध और महार ये शब्द भिन्न है मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हू पर जिन्होंने बौद्ध धम्म में धर्मांतर ( जिस धर्म में थे उस पुराने धर्म को छोड़कर विचार , आचार , उच्चार और कागजात इ. सहित ) नहीं किया वे लोग भी डॉ. बाबासाहब आंबेडकर इस महापुरुष की वजह से बौद्ध धम्म का अर्थ समजने लगे और उसमे आगे रहा वो समाज महार है ऐसा मुझे लगता है | मुझे इस बात की भी कल्पना है की मैंने ये दोनों शब्द एकही जगह पर उपयोग में लाये इसलिए कुछ लोग बड़ी नाराजी व्यक्त कर सकते है पर मुझे मेरा मुद्दा इस बातसे भी ज्यादा जरुरी लगता है | रहे |
      बौद्ध और महार समाज आज के दौर में उच्चवर्णीय समाज से विवाह करने के निर्णय प्रक्रिया में सबसे आगे है ऐसे निष्कर्ष फ़िलहाल तो निकालते ही आएंगे | इससे भविष्य में बड़ा बदलाव आ सकता है | इसलिए वर्त्तमान में इस विषय की वजह से बहोत से सवाल खड़े हुए नजर आते है | दोनों समाज की युवतीया ब्याहने में उच्चवर्णीय समाज को बड़ी कठिनाई महसूस होती है और इन दोनों समाज को भी बहोत सी कठिनाइया महसूस होतीही है | पर इसी जगह उच्चवर्णीय लोगो की युवतीया बड़े पैमाने पर इन समाज के युवको से विवाह रचाते हुए नजर आती है | पक्का इस वजह इस अध्याय से भविष्य में क्या बदलाव आयेंगे ? यह सोचना आज की स्थिति में महत्वपूर्ण बन चूका है | मुझे तो ऐसा लगता है की जो लोग बौद्ध बन चुके है उन्हें तो जातिप्रथा जैसे फाल्तुक मुद्दे से कोई लेना देना रहा ही नहीं है | जाती प्रथा होना ये हिंदू धर्म की सबसे बड़ी समस्या है और उन्होंने अंतरजातीय विवाह करना जरुरी है | पर मदद और देश कार्य के लिए अगर बौद्ध समाज अंतरधर्मीय विवाह करते है तो ठीक है पर उनका सीधे रस्ते तो जाती प्रथा से किसी भी प्रकार से लेनदेन नहीं ये निश्चित है |
      आजका बौद्ध और महार समाज का युवा वर्ग बड़े पैमाने पर अंतरधर्मीय और अंतरजातीय विवाह करते हुए नजर आते है | पर समस्या ये बन चुकी है की वो युवा विवाह करने के बाद अपने समाज से दूर जाने में या फिर पीठ फेरने में धन्य मानता है , ऐसा क्यों होता है ? अंतरधर्मीय और अंतरजातीय विवाह यह बौद्ध और महार समाज के लिए भविष्य की समस्या बन चुकी है | ये कड़वा मगर सत्य है | इसका कारण क्या है ? जो युवक विवाह करता है वो या जो युवती विवाह करती है वो ? वास्तविक अंतरधर्मीय और अंतरजातीय विवाह यह दो संस्कृति , दो अलग अलग समाज को जोड़ने वाला तंतु बनता है ( अन्य भी बहोत सारे महत्व है ) | पर यह बौद्ध और महार समाज के लिए जहर दिखाई दे रहा है | इसका क्या कारण है ? इसमें के दोषों को देखते हुए कुछ ने तो यहाँ तक कथन किया है की डॉ . बाबासाहब आंबेडकर इनका ब्राम्हण स्त्री के साथ शादी करने का निर्णय गलत हुआ था ( प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रकार से ) | मुझे ऐसे मत पढने के बाद हसी आती है , अगर हममे सामर्थ्य नहीं है तो उसके लिए डॉ . बाबासाहब आंबेडकर को कैसे दोषी ठहराया जा सकता है ? वास्तविक मेरे मत से डॉ . बाबासाहब आंबेडकर का निर्णय सिर्फ स्तुति के पात्र न होकर ऐतिहासिक मोड देने वाला साबित हो चूका है | फरक यही है की प्रज्ञा का बौद्ध और महार समाज में अभी तक भी विकास किया नहीं है ( अपवाद होंगे ) | मेरा व्यक्तिगत मत ऐसा बन चूका है की अंतरधर्मिय और अंतरजातीय विवाह करने योग्य ( उच्चवर्णीय समाज से ) अभी भी बौद्ध और महार समाज के युवक और युवतिया परिपक्व नहीं हुए ( अपवाद होंगे ) | परिस्थिति ऐसी बनती है की आने वाला जो शिशु जन्म लेता है वो माँ के सहवास में सर्वाधिक रहता है | और माँ ने अभी भी देव , धर्म , ईश्वर वाली संकल्पनाओ का त्याग नहीं किया होता | इसलिए उसकी माँ उसे ग मतलब गणपति और भ मतलब भटजी यही सिखाती है | उस युवती का साथीदार उसे बौद्ध ( अज्ञान से प्रकाश की और जाने वाला मार्ग ) बनाने में और उसका मन परिवर्तन करने में असफल हुआ होता है | या फिर उसे बौद्ध संस्कार या बौद्ध से कोई लेनदेन नहीं रहता है | यह आज का निर्णय उसकी अगली पीढ़ी पर बहोत परिणामकारक सिद्ध होगा इसमें कोई संदेह हो ही नहीं सकता पर वह इस बारे में पूर्ण अनभिज्ञ नजर आता है या जानबूझकर अनभिज्ञ बनता है | वैसे ही इस समाज की युवतीने अगर अंतरधर्मीय या अंतरजातीय विवाह किया होगा तो अपने साथीदार के सामने उसकी कोई एक नहीं चलती | उसका देव , ईश्वर , धर्म , जाती वह चुपचाप स्वीकार कर लेती है | वह पूर्णत: अपने साथीदार या ससुराल की मर्जी , धर्म , जाती ,परंपरा , प्रथा के अनुसार पालन शुरू कर देती है | वह अपने साथीदार का स्वीकार करती है प्रथानुरूप , परंपरानुरूप , धर्मनुरूप रहनसहन बदलने के लिए तैयार हो जाती है | प्रथा ,परम्परा धर्मानुसार गुलाम होना पसंद करती है पर जिस बुद्ध धम्म स्वातंत्र्य , समता ,बंधुता ,न्याय ऐसे कई गुण है वो उसे मालूम नहीं होता या फिर वो बोल नहीं पाती या फिर बोलती नहीं है | उसकी गुलामी के प्रतीकात्मक रूप भी वे पहनती है उदा. मंगलसूत्र ,सिंधुर ,चुडिया इ. | अपने बच्चे ने जागृत रहना चाहिए ( जिसका अंतरधर्मिय या अंतरजातीय विवाह हो चूका है उसके पालक ने ) ऐसे संस्कार उसे उसके माँ बाप से मिले नहीं होते पर्याय स्वरुप उसपर बौद्ध संस्कार नहीं हुए होते | और इस वजह से आनेवाली पीढ़ी यह बौद्ध ( अज्ञान से प्रकाश की और जाने वाला मार्ग ) न होते हुए देव ,धर्म ,परंपरा , ईश्वरवाद इनमे जकड़ जाती है | कल्पना पर विश्वास देव या ईश्वर पर विश्वास यह इसमे ही समा जाते है | इसपर ( जिन्होंने अंतरधर्मीय या अंतरजातीय विवाह किया है ) उस व्यक्ति से अगर पूछा जाए तो उसका कहना होता है की , उसे उसका धर्म पालन करने का स्वातंत्र्य है | पर हमने जिसके साथ विवाह किया उसका मन परिवर्तन करने में या फिर हिंदू ( या और कोई ) कल्पनामिश्रित धर्म है ये साबित करने में हम असफल रहे ये बात उसे ध्यान आती ही नहीं या फिर ध्यान देने की उसकी जरुरत नहीं होती | फिर वह इस बात को अनदेखा कर देता है और आनेवाली पीढ़ी भटक जाती है | जो आज तक हुआ वो आगे भी होते रहता है | इसका उदहारण देने की मुझे जरुरत नहीं लगती | पर इसपर मेरा एक मत हमेशा से ही रहा है की , अंतरधर्मीय और अंतरजातीय विवाह करना बिलकुल गलत नहीं है | पर विवाह करने पूर्व अगर हम प्रेम अध्याय ( ये आजकल के युवक - युवतीयों की भावना है ) कर रहे है तो हमें उस व्यक्ति का मन परिवर्तन करने के लिए बहोत वक्त मिलता है | वो वक्त लेकर हमने उसका मनपरिवर्तन करना चाहिए | विवाह पश्चात भी बहोत समय मिलता है | पर हम इस बात के बारे में सोचते ही नहीं या फिर हम उस व्यक्ति का यह धार्मिक स्वातंत्र्य है ऐसा युक्तिवाद करते है | स्वातंत्र्य है पर क्या इसका मतलब यह नहीं होता ? की , जो लोग ऐसे करते होंगे या फिर बोलते होंगे वे लोग अपने साथीदार ने इन झूटी बातों से निकलना चाहिए इसलिए जो साथीदार के लिए कर्तव्य होता है उस कर्तव्य से भागते है ? अत: इन सब बातों पर गहराई से सोचने पर मेरा ऐसा विचार है की , बुद्ध धम्म या आंबेडकर तत्वज्ञान में जबरदस्ती को स्थान है ही नहीं | मन से स्वीकार करना | अनुभव से जानकार पूर्ण चिकित्सक बुद्धिसे स्वीकार करना सिर्फ इसे ही महत्व है उस तरह जो चिकित्सक नहीं जो धम्म को परखता नहीं वो बौद्ध हो ही नहीं सकता या उसे बौद्ध बोल ही नहीं सकते इसलिए पहले हमें बुद्ध धम्म का स्पष्टीकरण करते आ सकता है इतना सामर्थ्यवान होना आवश्यक है और अपने साथीदार को चिकित्सा करने के बाद ही , अनुभव लेने के बाद ही स्वयंम मन से स्वीकार करने की धम्मनुरूप आझादी तो होती ही है | इसलिए बौद्ध और महार समाज ने अपने बच्चोमे पहले इतना सामर्थ्य भरना चाहिए की , बौद्ध धम्म ( अज्ञान से प्रकाश की और ले जाने वाला मार्ग , एक जीवन शैली ,धर्म कहकर नहीं तो धम्म {मानव मानव के बिच के नीतिमत्ता से चलने वाले सम्बन्ध के तत्व} समझाकर ) कैसा योग्य है ? यह स्पष्टीकरण देने की प्रज्ञा विकासित होनी चाहिए | और अगर माँ बाप के संस्कार वैसे नहीं हुए हो तो बौद्ध और महार समाज के युवा वर्ग ने वो स्वयम ही विकासित करने चाहिए उसके बादमे ही अंतरधर्मीय या अंतरजातीय विवाह के बारे में सोचना चाहिए नहितो फाल्तुक में अपने समाज का भवितव्य कचरे में ना डाले | पहले हम स्वयम बुद्ध धम्म का अर्थ ठीक तरह से बता पाएंगे ऐसी प्रज्ञा स्वयम में निर्माण करनी चाहिए |
      उच्चवर्णीय लोगो की युवतिया वैसे अपना भविष्य परखने में बड़ी ही चतुर नजर आती है क्योकि इन दोनों समाज का जो युवक तरक्की करने के आसार हो उसी से वे विवाह करती है | और इस समाज के एक युवती का भविष्य जलाती है | इस समाज के युवतीयों की संख्या दिन पर दिन बढ़ते जा रही है और प्रगतिशील रहने वाले युवको की मानसिकता इस समाज की ( बौद्ध और महार ) युवतीयों से विवाह करने की नहीं है | इस समाज की युवतिया अन्य समाज के युवको से विवाह करने के मामले में पीछे है | युवको की संख्या मात्र अधिक है | सिर्फ हमें एक अच्छा साथीदार मिलना चाहिए यह आशा रखते हुए अगर हम विवाह करते होंगे तो अगले पीढ़ी का विचार करना भी तो जरुरतही है | अपनी आगे की पीढ़ी हमें किस तरह से किस संस्कार के साथ शामिल करनी है ? भूतकाल हमारे हाथ में निश्चित रूप से नहीं है पर वर्त्तमानकाल में क्या करना है ? ये अपने ही हात में है | भूतकाल से अनुभव लेकर वर्त्तमान काल में कार्य करने से भविष्य क्या निर्माण करना है ये सर्वथा स्वयंम पर आधारित होता है | इन बातों पर पूरा युवा वर्ग गहराई से सोचे लेख बढे नहीं इसलिए यही खत्म करता हू अन्यथा बहोत से मुद्दों का विश्लेषण कर सकता था |
धन्यवाद
{ अभिजीत गणेश भिवा }
मराठी के लिए अगली लिंक पर क्लिक करे http://abhijitganeshb0.blogspot.com/2011/08/blog-post.html

शनिवार, १ ऑक्टोबर, २०११

धर्म और धम्म




 धर्म और धम्म में क्या अंतर है ? ये एक बहोत ही महत्व पूर्ण सवाल बहोत बार पूछा जाता है | कुछ लोगो का कहना है की धर्म और धम्म में सिर्फ भाषा का मात्र फर्क है | पर मुझे ये कथन बहोत ही अपूर्ण लगता है | धर्म इस शब्द और व्याख्या के बारे में कोई भी तर्क या विचार व्यक्त करना बहोत ही मुश्किल बात है क्योकि इसपर अलग अलग विद्वान ने अलग अलग मत प्रवाह रखा हुआ है | धम्म का अर्थ तथागत के शब्दों से लगाया जा सकता है | अत: इस विषय पर प्रकाश डालने का एक छोटा सा प्रयास मैं कर रहा हू |
       इस विषय को महत्व प्राप्त प्राप्त होने के लिए एक महत्वपूर्ण घटना का यहाँ उल्लेख करना बहोत जरुरी लगता है | बुद्ध धम्म के आज तक के महत्व पूर्ण विद्वानों में से एक जिन्हें की बोधिसत्व का पद , उपाधि प्रदान की गई है ,ऐसे दुनिया में कीर्तिमान डॉ. भी .रा .आंबेडकर का इस विषय से सबसे गहरा ताल्लुक है | बुद्ध और उनका धम्म इस भारतीय बौद्ध धर्मिय लोगो के महत्वपूर्ण ग्रन्थ को निर्माण करते वक्त डॉ. भी .रा आंबेडकर जी ने पहले इस महत्वपूर्ण किताब का नाम बुद्ध और उनका तत्वज्ञान ( Buddh And his Gospel ) रखा था | पर बीचमे उन्होंने इस किताब का नाम बदलकर बुद्ध और उनका धम्म ( Buddha And his Dhamma ) ऐसे कर दिया | यह अपने आप में बहोत बड़ी और महत्वपूर्ण घटना है | उन्होंने ऐसा क्यों किया ? उन्होंने धम्म इस पाली के शब्द का इस्तेमाल क्यों किया ? धर्म ( Religion ) यह शब्द क्यों नहीं इस्तेमाल किया ? इस बात को स्पष्ट करने हेतु वे अपने ग्रन्थ में धर्म और धम्म ऐसे महत्वपूर्ण प्रकरण को रखते है |
       पूरी दुनिया में सबसे बड़े ऐसे चार महत्वपूर्ण धर्म समुदाय नजर आते है | ख्रिश्चन ,मुस्लिम ,हिंदू और बौद्ध | ख्रिश्चन ,मुस्लिम हिंदू ये तिन धर्म अगर है तो फिर अकेले बुद्ध के धर्म को धर्म कहने में क्या समस्या है ? धर्म का उद्देश दुनिया की उत्पत्ति स्पष्ट करना और धम्म का उद्देश दुनिया की पुनर्रचना करना है | ऐसा स्पष्टीकरण दिया जाता है | उपरी तीनों धर्मो में कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत के बारे में बहोत ही चमत्कारीक साम्यताए है | जो की उन धर्म की जड़े मानी जाती है | पर बुद्ध धम्म उन बातों को पूरी तरह से विरोध करता है या फिर कही असहमति दर्शाता है | ख्रिश्चन ,मुस्लिम और हिंदू ये तीनों भी धर्म ईश्वर इस संकल्पना को मान्यता ही नहीं देते बल्कि उसे अपने धर्म का सर्वोच्च स्थान भी प्रदान करते है | पर बुद्ध का कथन है , " कोई भी यह साबित नहीं कर सकता की पृथ्वी का निर्माण ईश्वर ने करवाया है बल्कि पृथ्वी यह विकास हुई है "| बुद्ध का ये वचन और ऐसे कई उपदेश ईश्वर की संकल्पनाओ को स्पष्ट रूप से नकार देते है | तीनों धर्म के संस्थापक ईश्वर से अपना रिश्ता स्पष्ट करते हुए नजर आते है | पर बुद्ध उस ईश्वर संकल्पना को ख़ारिज कर देते है | बुद्ध ने ईश्वर पर विश्वास करना अधम्म बताया | ईश्वर की संकल्पना की जगह बुद्ध धम्म में नीतिमत्ता विद्यमान है | जैसे की तीनों धर्मो में ईश्वर की संकल्पना विद्यमान है वैसे ही शैतान ,भुत ,पिशाच की संकल्पनाए भी विद्यमान है |  बुद्ध ने इस तरह की किसी संकल्पना को अपने उपदेश में स्थान नहीं दिया | तीनों धर्म में आत्मा की संकल्पना नजर आती है | बुद्ध ने आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास को सम्यक दृष्टी के मार्ग की अड़चन बताया और आत्मा पर विश्वास करना अधम्म बताया | तीनों धर्मो के संस्थापक स्वयं को मोक्षदाता घोषित करते है मतलब ईश्वर के अस्तित्व को मान्यता और हमारा ईश्वर के साथ का नाता न मानने पर आप मोक्ष ( मृत्यु उपरांत स्वर्ग में जाना ) प्राप्त नहीं कर सकते ऐसा घोषित कर देते है और स्वयं को एक ईश्वर का चमत्कार कहते है | पर बुद्द चमत्कार को विरोध करते है | बुद्ध ने कभी भी कही भी ऐसा कथन नहीं किया की मैं मोक्षदाता हू | उसने " स्वर्ग और नर्क की कल्पना को मृत्यु उपरांत ना मानते हुए अपने कर्म से उस अवस्था को जीवित रहते हुए आप प्राप्त करते हो " ऐसे कहा | " मैं मोक्षदाता नहीं मार्गदर्शक हू " ऐसे कहा | कर्म का सिद्धांत देते हुए हर व्यक्ति को अपने कर्म के अनुसार फल मिलने का आश्वासन दिया और मोक्ष की कल्पना को छोड़ निर्वाण नामक अवस्था का कथन किया जो की हर व्यक्ति अपने ही जीवन में जीवित रहते हुए प्राप्त कर सकता है |मृत्यु के पहले या मृत्यु के उपरांत आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा ऐसी मान्यता उसके धम्म ने दी | उपरी धर्मो की कुछ विशिष्ट किताब है और उन्हें ईश्वर की देंन समझा जाता है या फिर ईश्वर के किसी नाते के व्यक्ति ने लिखी हुई समझा जाता है | बुद्ध ने किसी भी धार्मिक ग्रन्थ पर विश्वास रखना इस बात को तिलांजलि देते हुए कलाम लोगो को उपदेश किया "आपको अनुभव पर यदि कल्याणकारी बात नजर आये या उस क्षेत्र के ज्ञानी लोगो के अनुसार वे कल्यानकारी बात है ऐसा नजर आये तो ही स्वीकार करो " | तीनों धर्मो में उनकी किताबो में जो बाते लिखी है उन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकता और इन धर्मो के संस्थापक ने जो कह दिया वह अंतिम सत्य कहा गया | बुद्ध ने ऐसा कोई दावा न करते हुए मानव को अपने बुद्धि से विचार करने की स्वतंत्रता प्रदान की | और यही नहीं तो धम्म को कालानुरूप बदलने की स्वतंत्रता प्रदान की | ऐसी स्वतंत्रता दुनिया में कोई भी धर्म अपने अनुयायी को नहीं दे सका | इतना विश्वास किसी भी धर्म ने अपने अनुयायी पर कभीभी कही भी नहीं दिखाया है | प्रत्येक धर्म के संस्थापक ने अपना विशेष ऐसा स्थान निर्माण कर लिया | बुद्ध ने कभी भी अपने स्वयं के लिए ऐसा विशेष स्थान का कोई हेतु नहीं रखा | बुद्ध ने अपने व्यक्तिगत जीवन को कभी भी महत्व नहीं दिया | किसी भी धर्म संस्थापक के करीब तक आप नहीं पहुच सकते | पर बुद्ध यह एक पद है और वहा तक कोई भी व्यक्ति अपने प्रयत्न से पहुच सकता है | बुद्ध ने स्वयं को चुनौती देने को अपने अनुयायी को हमेशा से ही प्रेरित किया | ऐसा करने वाला वो दुनिया का एकमात्र धर्म संस्थापक है | जिस समय बुद्ध का महापरिनिर्वाण हो रहा था तो अंतिम शब्दों में वे कहते है " हे भिक्षुओ अगर किसी भी प्रकार की शंका आपके मन में धम्म के प्रति हो तो कृपया कहो , कही ऐसा न हो की मेरे महापरिनिर्वाण के बाद आपके मन में विचार आये की हमारा शास्ता जब यहाँ मौजूद था उस वक्त हमने उससे हमारी शंका कथन नहीं की " | अपने जीवन की आखरी घडी में भी बुद्ध अपने अनुयायी को शंका पूछने के लिए उकसाते है | ऐसा करने वाला वो दुनिया का एकमात्र धर्म संस्थापक है | ख्रिश्चन ,मुस्लिम ,हिंदू इन जैसे धर्मो ने अपने धर्म के गुरु निर्माण करते हुए , उनके आदेशानुसार चलने पर लोगो को विवश कर दिया पर बुद्ध ने अपने संघ का निर्माण धम्म के आदेशो पर चलने वाला लोकसमुदाय है और वह जैसा बोलता है वैसा चलता है इस उदहारण के लिए किया | मुस्लिम और हिंदू इन दोनों धर्मो ने तो बलि प्रथा को बड़ा ही पवित्र माना पर बुद्ध ने किसी भी प्राणी की हत्या करने पर अपने धम्म में आने वाले को पहले ही पंचशील में वैसा शील रखकर प्रतिबन्ध लगाना चाहा | बुद्ध ने चार्वाक का तर्क स्वीकार किया | चार्वाक कहते है " बलि दिए जाने वाले को यदि स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो आप लोगो ने अपने स्वयं के पिता की बलि देनी चाहिए " | बुद्ध कहते है ,  " बलि के प्राणी के जगह मेरे प्राणों की आहुति देने पर आपको ज्यादा पुण्य प्राप्त हो सकता है " ऐसा राजा से कहने वाला बुद्ध एकमात्र धर्म संस्थापक है | मुस्लिम और हिंदू धर्म में स्त्रियों को बड़ा ही निचला दर्जा प्रदान किया गया है ( उदाहरण देना मुझे जरुरी नहीं लगता ) | " स्त्री वर्ग को धम्म का भिक्षु पद देकर स्त्री को समानता का दर्जा देने वाला बुद्ध सबसे पहला धर्म संस्थापक है | बुद्ध अपने उपदेश में कहते है " स्त्री पुरुष से महान होती है क्योकि वो चक्रवर्ती सम्राट को जन्म दे सकती है | वो एक बुद्ध को जन्म दे सकती है "| ऐसे उपदेश देकर बुद्ध ने उस वक्त की सामाजिक व्यवस्था को पूरा हिला दिया |  " स्त्री अपने प्रयासों से निर्वाण पद , अर्हत पद , बुद्ध पद पर भी पहुच सकती है " यह बुद्ध के धम्म की मान्यता है |
      "मानव के कर्म से मानव ऊँचा या निचा सिद्ध होता है जन्म से नहीं " ऐसा बुद्ध ने स्पष्ट रूप से कहा | उस वक्त के भारत में धार्मिक जातीयता को पूरी तरह से रोंदते हुए उसने अपने संघ में अछूत माने जाने वाले समाज को भी आदर प्राप्त करने का अवसर दिया, हर पद पर पहुचने का अवसर दिया | संघ के कई नियम आज कई देशो में लोकतंत्र में इस्तेमाल किये जाते है | धर्म कौनसा मानना है ? या कौनसे ईश्वर की पूजा करनी है ? ये तो पूरी तरह व्यक्तिगत बात है पर धम्म व्यक्तिगत ना होकर सामाजिक है | अकेले आदमी को धम्म की कोई आवश्यकता नहीं पर जब आदमी के बिच के संबंधो की बात आती है तब धम्म बिना समाज होना संभव नहीं है क्योकि नीतिमत्ता मतलब धम्म | इंसान के बिच के सम्बन्ध से ही धम्म की शुरुवात होती है | धम्म ( नीतिमत्ता ) के बिना समाज जंगली हो जाएगा इसलिए आपको नीतिमत्ता समाज में प्रस्थापित करने के लिए धम्म अपनानाही पड़ता है | धर्म में दो आदमी के बिच के संबंधो को महत्व ना देते हुए स्वयं के मोक्ष को ज्यादा महत्व है | निरीश्वरवादी रहने वाले व्यक्ति को धर्म गद्दार समझता है | उदा .नास्तिक जिसका कोई अस्तित्व नहीं ), काफ़िर (जो मानवता को गद्दार हो चूका हो ) .......ऐसे शब्द निरीश्वरवादी लोगो के लिए धर्म इस्तेमाल करता है | ऐसे शब्दों से ही वे धर्म निरीश्वरवादी व्यक्ति के प्रति नफ़रत करते है ऐसा सिद्ध होता है  | धम्म निरीश्वरवाद को ही मान्यता देता है और इतना ही नहीं तो विरोध का हमेशा ही स्वागत करता है | धर्म ईश्वर , नर्क इन जैसी बातों का खौफ दिखाकर हर बात को इंसान के ऊपर जबरन थोपता है | बुद्ध अपने उपदेशो को अपने बुद्धि की कसौटी पर ताड़ना , परखना इस बात पर जोर देते है | धर्म के हिसाब से हर काम पहले से ईश्वर ने पूर्व नियोजित किये होते है | सब ईश्वर ने पहले से तय करके रखा है | आदमी मात्र कटपुतली है | मानव के जन्म का धर्म कोई प्रयोजन स्पष्टीकरण नहीं करता | धम्म इस बात को पूरी तरह से नकारते हुए | निसर्ग व्यवस्था इंसान के कर्म व्यवस्था पर निर्भर है | ऐसा उत्तर देता है और मानव का जन्म उस व्यवस्था को सँभालने के लिए हुआ है | मानव के जन्म का ध्येय धम्म स्पष्ट करता है | धर्म पूजा ,अर्चा , ईश्वर की स्तुति ,कर्मकांड में विश्वास करना इन जैसी बातों को महत्व देता है पर धम्म आचरण को महत्व देता है | धर्म में आचरण करना आप अपने मोक्ष प्राप्ति के लिए करते हो या ईश्वर के खौफ से करते हो | और धम्म में सभी को सुखी रखना और स्वयं सुखी होकर अपने निर्वाण तक पहुचने के लिए आचरण को महत्व दिया जाता है | धम्म अज्ञानता पर टिका करता है | धम्म हर बात को जांचने , परखने के लिए कहता है | धम्म किसी भी बात पर महज विश्वास करने की शिक्षा को नकारता है | धम्म स्वयं को भी जांचने ,परखने की कसौटी पर खरा उतरता है | धम्म गरीबी को दुखी मानता है | धम्म शील को महत्व देता है | धम्म करुणा (मानव ने मानव प्रति प्रेम करना ) की शिक्षा देता है | धम्म करुणा के भी आगे जाकर मैत्री ( सभी प्राणिमात्र से प्रेम करना ) सीख देता है | जीस वजह से आपकी किसी भी प्राणी की हिंसा करने की इच्छा न हो | धम्म पंचशील देता है | जो की सारे मानव प्राणी को सुखी होने के लिए जरुरी है | धर्म ऐसी बाते समाज को नहीं सिखाता नहीं उस पर चलने का महत्व प्रतिपादन करता है |
       ऐसे महत्वपूर्ण फर्क होने के कारन दुनिया के विद्वान बुद्ध के धम्म को धर्म मानने के लिए तैयार नहीं होते | इन जैसी बातों पर गौर किया जाए तो फिर बुद्ध का उसी का शब्द ' धम्म ' अधिक योग्य लगने लग जाता है | वास्तविक धर्म का पाली शब्द धम्म ही है पर दुनिया के किसी भी धर्म की तुलना बुद्ध के धम्म से करने पर बहोत ही फर्क दिखाई देने लगते है | इसलिए सवाल खड़ा हो जाता है की उसे धर्म कहना उचित होगा या नहीं ? " एक विशिष्ट महामानव के उपदेश पर चलने वाला मानव समूह उसे उस धर्म का व्यक्ति कहा जाता है " ऐसी कुछ सयुक्तिक व्याख्या अगर धर्म की लगाईं जाए तो ही बुद्ध के धम्म को धर्म कहने में ठीक लगेगा | वैसे आज की दुनिया में अगर धम्म को धर्म कहा जाए क्योकि वो एक भाषा का फर्क है तो ठीक है पर इतने बड़े फर्क को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ऐसे मेरा मानना है | धन्यवाद
 ( अभिजीत गणेश भिवा )