मंगळवार, १८ ऑक्टोबर, २०११

बौद्ध और महार इस समाज का आंतरधर्मीय व आंतरजातीय विवाह

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बहोत जरुरी मुद्दे पर विचार रखने का साहस कर रहा हू पर भविष्य पर दृष्टिक्षेप डालते हुए इस मुद्देपर इस समाज ने सोचना चाहिए ऐसा मुझे आवश्यक लगता है | पहले तो बौद्ध और महार ये शब्द भिन्न है मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हू पर जिन्होंने बौद्ध धम्म में धर्मांतर ( जिस धर्म में थे उस पुराने धर्म को छोड़कर विचार , आचार , उच्चार और कागजात इ. सहित ) नहीं किया वे लोग भी डॉ. बाबासाहब आंबेडकर इस महापुरुष की वजह से बौद्ध धम्म का अर्थ समजने लगे और उसमे आगे रहा वो समाज महार है ऐसा मुझे लगता है | मुझे इस बात की भी कल्पना है की मैंने ये दोनों शब्द एकही जगह पर उपयोग में लाये इसलिए कुछ लोग बड़ी नाराजी व्यक्त कर सकते है पर मुझे मेरा मुद्दा इस बातसे भी ज्यादा जरुरी लगता है | रहे |
      बौद्ध और महार समाज आज के दौर में उच्चवर्णीय समाज से विवाह करने के निर्णय प्रक्रिया में सबसे आगे है ऐसे निष्कर्ष फ़िलहाल तो निकालते ही आएंगे | इससे भविष्य में बड़ा बदलाव आ सकता है | इसलिए वर्त्तमान में इस विषय की वजह से बहोत से सवाल खड़े हुए नजर आते है | दोनों समाज की युवतीया ब्याहने में उच्चवर्णीय समाज को बड़ी कठिनाई महसूस होती है और इन दोनों समाज को भी बहोत सी कठिनाइया महसूस होतीही है | पर इसी जगह उच्चवर्णीय लोगो की युवतीया बड़े पैमाने पर इन समाज के युवको से विवाह रचाते हुए नजर आती है | पक्का इस वजह इस अध्याय से भविष्य में क्या बदलाव आयेंगे ? यह सोचना आज की स्थिति में महत्वपूर्ण बन चूका है | मुझे तो ऐसा लगता है की जो लोग बौद्ध बन चुके है उन्हें तो जातिप्रथा जैसे फाल्तुक मुद्दे से कोई लेना देना रहा ही नहीं है | जाती प्रथा होना ये हिंदू धर्म की सबसे बड़ी समस्या है और उन्होंने अंतरजातीय विवाह करना जरुरी है | पर मदद और देश कार्य के लिए अगर बौद्ध समाज अंतरधर्मीय विवाह करते है तो ठीक है पर उनका सीधे रस्ते तो जाती प्रथा से किसी भी प्रकार से लेनदेन नहीं ये निश्चित है |
      आजका बौद्ध और महार समाज का युवा वर्ग बड़े पैमाने पर अंतरधर्मीय और अंतरजातीय विवाह करते हुए नजर आते है | पर समस्या ये बन चुकी है की वो युवा विवाह करने के बाद अपने समाज से दूर जाने में या फिर पीठ फेरने में धन्य मानता है , ऐसा क्यों होता है ? अंतरधर्मीय और अंतरजातीय विवाह यह बौद्ध और महार समाज के लिए भविष्य की समस्या बन चुकी है | ये कड़वा मगर सत्य है | इसका कारण क्या है ? जो युवक विवाह करता है वो या जो युवती विवाह करती है वो ? वास्तविक अंतरधर्मीय और अंतरजातीय विवाह यह दो संस्कृति , दो अलग अलग समाज को जोड़ने वाला तंतु बनता है ( अन्य भी बहोत सारे महत्व है ) | पर यह बौद्ध और महार समाज के लिए जहर दिखाई दे रहा है | इसका क्या कारण है ? इसमें के दोषों को देखते हुए कुछ ने तो यहाँ तक कथन किया है की डॉ . बाबासाहब आंबेडकर इनका ब्राम्हण स्त्री के साथ शादी करने का निर्णय गलत हुआ था ( प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रकार से ) | मुझे ऐसे मत पढने के बाद हसी आती है , अगर हममे सामर्थ्य नहीं है तो उसके लिए डॉ . बाबासाहब आंबेडकर को कैसे दोषी ठहराया जा सकता है ? वास्तविक मेरे मत से डॉ . बाबासाहब आंबेडकर का निर्णय सिर्फ स्तुति के पात्र न होकर ऐतिहासिक मोड देने वाला साबित हो चूका है | फरक यही है की प्रज्ञा का बौद्ध और महार समाज में अभी तक भी विकास किया नहीं है ( अपवाद होंगे ) | मेरा व्यक्तिगत मत ऐसा बन चूका है की अंतरधर्मिय और अंतरजातीय विवाह करने योग्य ( उच्चवर्णीय समाज से ) अभी भी बौद्ध और महार समाज के युवक और युवतिया परिपक्व नहीं हुए ( अपवाद होंगे ) | परिस्थिति ऐसी बनती है की आने वाला जो शिशु जन्म लेता है वो माँ के सहवास में सर्वाधिक रहता है | और माँ ने अभी भी देव , धर्म , ईश्वर वाली संकल्पनाओ का त्याग नहीं किया होता | इसलिए उसकी माँ उसे ग मतलब गणपति और भ मतलब भटजी यही सिखाती है | उस युवती का साथीदार उसे बौद्ध ( अज्ञान से प्रकाश की और जाने वाला मार्ग ) बनाने में और उसका मन परिवर्तन करने में असफल हुआ होता है | या फिर उसे बौद्ध संस्कार या बौद्ध से कोई लेनदेन नहीं रहता है | यह आज का निर्णय उसकी अगली पीढ़ी पर बहोत परिणामकारक सिद्ध होगा इसमें कोई संदेह हो ही नहीं सकता पर वह इस बारे में पूर्ण अनभिज्ञ नजर आता है या जानबूझकर अनभिज्ञ बनता है | वैसे ही इस समाज की युवतीने अगर अंतरधर्मीय या अंतरजातीय विवाह किया होगा तो अपने साथीदार के सामने उसकी कोई एक नहीं चलती | उसका देव , ईश्वर , धर्म , जाती वह चुपचाप स्वीकार कर लेती है | वह पूर्णत: अपने साथीदार या ससुराल की मर्जी , धर्म , जाती ,परंपरा , प्रथा के अनुसार पालन शुरू कर देती है | वह अपने साथीदार का स्वीकार करती है प्रथानुरूप , परंपरानुरूप , धर्मनुरूप रहनसहन बदलने के लिए तैयार हो जाती है | प्रथा ,परम्परा धर्मानुसार गुलाम होना पसंद करती है पर जिस बुद्ध धम्म स्वातंत्र्य , समता ,बंधुता ,न्याय ऐसे कई गुण है वो उसे मालूम नहीं होता या फिर वो बोल नहीं पाती या फिर बोलती नहीं है | उसकी गुलामी के प्रतीकात्मक रूप भी वे पहनती है उदा. मंगलसूत्र ,सिंधुर ,चुडिया इ. | अपने बच्चे ने जागृत रहना चाहिए ( जिसका अंतरधर्मिय या अंतरजातीय विवाह हो चूका है उसके पालक ने ) ऐसे संस्कार उसे उसके माँ बाप से मिले नहीं होते पर्याय स्वरुप उसपर बौद्ध संस्कार नहीं हुए होते | और इस वजह से आनेवाली पीढ़ी यह बौद्ध ( अज्ञान से प्रकाश की और जाने वाला मार्ग ) न होते हुए देव ,धर्म ,परंपरा , ईश्वरवाद इनमे जकड़ जाती है | कल्पना पर विश्वास देव या ईश्वर पर विश्वास यह इसमे ही समा जाते है | इसपर ( जिन्होंने अंतरधर्मीय या अंतरजातीय विवाह किया है ) उस व्यक्ति से अगर पूछा जाए तो उसका कहना होता है की , उसे उसका धर्म पालन करने का स्वातंत्र्य है | पर हमने जिसके साथ विवाह किया उसका मन परिवर्तन करने में या फिर हिंदू ( या और कोई ) कल्पनामिश्रित धर्म है ये साबित करने में हम असफल रहे ये बात उसे ध्यान आती ही नहीं या फिर ध्यान देने की उसकी जरुरत नहीं होती | फिर वह इस बात को अनदेखा कर देता है और आनेवाली पीढ़ी भटक जाती है | जो आज तक हुआ वो आगे भी होते रहता है | इसका उदहारण देने की मुझे जरुरत नहीं लगती | पर इसपर मेरा एक मत हमेशा से ही रहा है की , अंतरधर्मीय और अंतरजातीय विवाह करना बिलकुल गलत नहीं है | पर विवाह करने पूर्व अगर हम प्रेम अध्याय ( ये आजकल के युवक - युवतीयों की भावना है ) कर रहे है तो हमें उस व्यक्ति का मन परिवर्तन करने के लिए बहोत वक्त मिलता है | वो वक्त लेकर हमने उसका मनपरिवर्तन करना चाहिए | विवाह पश्चात भी बहोत समय मिलता है | पर हम इस बात के बारे में सोचते ही नहीं या फिर हम उस व्यक्ति का यह धार्मिक स्वातंत्र्य है ऐसा युक्तिवाद करते है | स्वातंत्र्य है पर क्या इसका मतलब यह नहीं होता ? की , जो लोग ऐसे करते होंगे या फिर बोलते होंगे वे लोग अपने साथीदार ने इन झूटी बातों से निकलना चाहिए इसलिए जो साथीदार के लिए कर्तव्य होता है उस कर्तव्य से भागते है ? अत: इन सब बातों पर गहराई से सोचने पर मेरा ऐसा विचार है की , बुद्ध धम्म या आंबेडकर तत्वज्ञान में जबरदस्ती को स्थान है ही नहीं | मन से स्वीकार करना | अनुभव से जानकार पूर्ण चिकित्सक बुद्धिसे स्वीकार करना सिर्फ इसे ही महत्व है उस तरह जो चिकित्सक नहीं जो धम्म को परखता नहीं वो बौद्ध हो ही नहीं सकता या उसे बौद्ध बोल ही नहीं सकते इसलिए पहले हमें बुद्ध धम्म का स्पष्टीकरण करते आ सकता है इतना सामर्थ्यवान होना आवश्यक है और अपने साथीदार को चिकित्सा करने के बाद ही , अनुभव लेने के बाद ही स्वयंम मन से स्वीकार करने की धम्मनुरूप आझादी तो होती ही है | इसलिए बौद्ध और महार समाज ने अपने बच्चोमे पहले इतना सामर्थ्य भरना चाहिए की , बौद्ध धम्म ( अज्ञान से प्रकाश की और ले जाने वाला मार्ग , एक जीवन शैली ,धर्म कहकर नहीं तो धम्म {मानव मानव के बिच के नीतिमत्ता से चलने वाले सम्बन्ध के तत्व} समझाकर ) कैसा योग्य है ? यह स्पष्टीकरण देने की प्रज्ञा विकासित होनी चाहिए | और अगर माँ बाप के संस्कार वैसे नहीं हुए हो तो बौद्ध और महार समाज के युवा वर्ग ने वो स्वयम ही विकासित करने चाहिए उसके बादमे ही अंतरधर्मीय या अंतरजातीय विवाह के बारे में सोचना चाहिए नहितो फाल्तुक में अपने समाज का भवितव्य कचरे में ना डाले | पहले हम स्वयम बुद्ध धम्म का अर्थ ठीक तरह से बता पाएंगे ऐसी प्रज्ञा स्वयम में निर्माण करनी चाहिए |
      उच्चवर्णीय लोगो की युवतिया वैसे अपना भविष्य परखने में बड़ी ही चतुर नजर आती है क्योकि इन दोनों समाज का जो युवक तरक्की करने के आसार हो उसी से वे विवाह करती है | और इस समाज के एक युवती का भविष्य जलाती है | इस समाज के युवतीयों की संख्या दिन पर दिन बढ़ते जा रही है और प्रगतिशील रहने वाले युवको की मानसिकता इस समाज की ( बौद्ध और महार ) युवतीयों से विवाह करने की नहीं है | इस समाज की युवतिया अन्य समाज के युवको से विवाह करने के मामले में पीछे है | युवको की संख्या मात्र अधिक है | सिर्फ हमें एक अच्छा साथीदार मिलना चाहिए यह आशा रखते हुए अगर हम विवाह करते होंगे तो अगले पीढ़ी का विचार करना भी तो जरुरतही है | अपनी आगे की पीढ़ी हमें किस तरह से किस संस्कार के साथ शामिल करनी है ? भूतकाल हमारे हाथ में निश्चित रूप से नहीं है पर वर्त्तमानकाल में क्या करना है ? ये अपने ही हात में है | भूतकाल से अनुभव लेकर वर्त्तमान काल में कार्य करने से भविष्य क्या निर्माण करना है ये सर्वथा स्वयंम पर आधारित होता है | इन बातों पर पूरा युवा वर्ग गहराई से सोचे लेख बढे नहीं इसलिए यही खत्म करता हू अन्यथा बहोत से मुद्दों का विश्लेषण कर सकता था |
धन्यवाद
{ अभिजीत गणेश भिवा }
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शनिवार, १ ऑक्टोबर, २०११

धर्म और धम्म




 धर्म और धम्म में क्या अंतर है ? ये एक बहोत ही महत्व पूर्ण सवाल बहोत बार पूछा जाता है | कुछ लोगो का कहना है की धर्म और धम्म में सिर्फ भाषा का मात्र फर्क है | पर मुझे ये कथन बहोत ही अपूर्ण लगता है | धर्म इस शब्द और व्याख्या के बारे में कोई भी तर्क या विचार व्यक्त करना बहोत ही मुश्किल बात है क्योकि इसपर अलग अलग विद्वान ने अलग अलग मत प्रवाह रखा हुआ है | धम्म का अर्थ तथागत के शब्दों से लगाया जा सकता है | अत: इस विषय पर प्रकाश डालने का एक छोटा सा प्रयास मैं कर रहा हू |
       इस विषय को महत्व प्राप्त प्राप्त होने के लिए एक महत्वपूर्ण घटना का यहाँ उल्लेख करना बहोत जरुरी लगता है | बुद्ध धम्म के आज तक के महत्व पूर्ण विद्वानों में से एक जिन्हें की बोधिसत्व का पद , उपाधि प्रदान की गई है ,ऐसे दुनिया में कीर्तिमान डॉ. भी .रा .आंबेडकर का इस विषय से सबसे गहरा ताल्लुक है | बुद्ध और उनका धम्म इस भारतीय बौद्ध धर्मिय लोगो के महत्वपूर्ण ग्रन्थ को निर्माण करते वक्त डॉ. भी .रा आंबेडकर जी ने पहले इस महत्वपूर्ण किताब का नाम बुद्ध और उनका तत्वज्ञान ( Buddh And his Gospel ) रखा था | पर बीचमे उन्होंने इस किताब का नाम बदलकर बुद्ध और उनका धम्म ( Buddha And his Dhamma ) ऐसे कर दिया | यह अपने आप में बहोत बड़ी और महत्वपूर्ण घटना है | उन्होंने ऐसा क्यों किया ? उन्होंने धम्म इस पाली के शब्द का इस्तेमाल क्यों किया ? धर्म ( Religion ) यह शब्द क्यों नहीं इस्तेमाल किया ? इस बात को स्पष्ट करने हेतु वे अपने ग्रन्थ में धर्म और धम्म ऐसे महत्वपूर्ण प्रकरण को रखते है |
       पूरी दुनिया में सबसे बड़े ऐसे चार महत्वपूर्ण धर्म समुदाय नजर आते है | ख्रिश्चन ,मुस्लिम ,हिंदू और बौद्ध | ख्रिश्चन ,मुस्लिम हिंदू ये तिन धर्म अगर है तो फिर अकेले बुद्ध के धर्म को धर्म कहने में क्या समस्या है ? धर्म का उद्देश दुनिया की उत्पत्ति स्पष्ट करना और धम्म का उद्देश दुनिया की पुनर्रचना करना है | ऐसा स्पष्टीकरण दिया जाता है | उपरी तीनों धर्मो में कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत के बारे में बहोत ही चमत्कारीक साम्यताए है | जो की उन धर्म की जड़े मानी जाती है | पर बुद्ध धम्म उन बातों को पूरी तरह से विरोध करता है या फिर कही असहमति दर्शाता है | ख्रिश्चन ,मुस्लिम और हिंदू ये तीनों भी धर्म ईश्वर इस संकल्पना को मान्यता ही नहीं देते बल्कि उसे अपने धर्म का सर्वोच्च स्थान भी प्रदान करते है | पर बुद्ध का कथन है , " कोई भी यह साबित नहीं कर सकता की पृथ्वी का निर्माण ईश्वर ने करवाया है बल्कि पृथ्वी यह विकास हुई है "| बुद्ध का ये वचन और ऐसे कई उपदेश ईश्वर की संकल्पनाओ को स्पष्ट रूप से नकार देते है | तीनों धर्म के संस्थापक ईश्वर से अपना रिश्ता स्पष्ट करते हुए नजर आते है | पर बुद्ध उस ईश्वर संकल्पना को ख़ारिज कर देते है | बुद्ध ने ईश्वर पर विश्वास करना अधम्म बताया | ईश्वर की संकल्पना की जगह बुद्ध धम्म में नीतिमत्ता विद्यमान है | जैसे की तीनों धर्मो में ईश्वर की संकल्पना विद्यमान है वैसे ही शैतान ,भुत ,पिशाच की संकल्पनाए भी विद्यमान है |  बुद्ध ने इस तरह की किसी संकल्पना को अपने उपदेश में स्थान नहीं दिया | तीनों धर्म में आत्मा की संकल्पना नजर आती है | बुद्ध ने आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास को सम्यक दृष्टी के मार्ग की अड़चन बताया और आत्मा पर विश्वास करना अधम्म बताया | तीनों धर्मो के संस्थापक स्वयं को मोक्षदाता घोषित करते है मतलब ईश्वर के अस्तित्व को मान्यता और हमारा ईश्वर के साथ का नाता न मानने पर आप मोक्ष ( मृत्यु उपरांत स्वर्ग में जाना ) प्राप्त नहीं कर सकते ऐसा घोषित कर देते है और स्वयं को एक ईश्वर का चमत्कार कहते है | पर बुद्द चमत्कार को विरोध करते है | बुद्ध ने कभी भी कही भी ऐसा कथन नहीं किया की मैं मोक्षदाता हू | उसने " स्वर्ग और नर्क की कल्पना को मृत्यु उपरांत ना मानते हुए अपने कर्म से उस अवस्था को जीवित रहते हुए आप प्राप्त करते हो " ऐसे कहा | " मैं मोक्षदाता नहीं मार्गदर्शक हू " ऐसे कहा | कर्म का सिद्धांत देते हुए हर व्यक्ति को अपने कर्म के अनुसार फल मिलने का आश्वासन दिया और मोक्ष की कल्पना को छोड़ निर्वाण नामक अवस्था का कथन किया जो की हर व्यक्ति अपने ही जीवन में जीवित रहते हुए प्राप्त कर सकता है |मृत्यु के पहले या मृत्यु के उपरांत आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा ऐसी मान्यता उसके धम्म ने दी | उपरी धर्मो की कुछ विशिष्ट किताब है और उन्हें ईश्वर की देंन समझा जाता है या फिर ईश्वर के किसी नाते के व्यक्ति ने लिखी हुई समझा जाता है | बुद्ध ने किसी भी धार्मिक ग्रन्थ पर विश्वास रखना इस बात को तिलांजलि देते हुए कलाम लोगो को उपदेश किया "आपको अनुभव पर यदि कल्याणकारी बात नजर आये या उस क्षेत्र के ज्ञानी लोगो के अनुसार वे कल्यानकारी बात है ऐसा नजर आये तो ही स्वीकार करो " | तीनों धर्मो में उनकी किताबो में जो बाते लिखी है उन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकता और इन धर्मो के संस्थापक ने जो कह दिया वह अंतिम सत्य कहा गया | बुद्ध ने ऐसा कोई दावा न करते हुए मानव को अपने बुद्धि से विचार करने की स्वतंत्रता प्रदान की | और यही नहीं तो धम्म को कालानुरूप बदलने की स्वतंत्रता प्रदान की | ऐसी स्वतंत्रता दुनिया में कोई भी धर्म अपने अनुयायी को नहीं दे सका | इतना विश्वास किसी भी धर्म ने अपने अनुयायी पर कभीभी कही भी नहीं दिखाया है | प्रत्येक धर्म के संस्थापक ने अपना विशेष ऐसा स्थान निर्माण कर लिया | बुद्ध ने कभी भी अपने स्वयं के लिए ऐसा विशेष स्थान का कोई हेतु नहीं रखा | बुद्ध ने अपने व्यक्तिगत जीवन को कभी भी महत्व नहीं दिया | किसी भी धर्म संस्थापक के करीब तक आप नहीं पहुच सकते | पर बुद्ध यह एक पद है और वहा तक कोई भी व्यक्ति अपने प्रयत्न से पहुच सकता है | बुद्ध ने स्वयं को चुनौती देने को अपने अनुयायी को हमेशा से ही प्रेरित किया | ऐसा करने वाला वो दुनिया का एकमात्र धर्म संस्थापक है | जिस समय बुद्ध का महापरिनिर्वाण हो रहा था तो अंतिम शब्दों में वे कहते है " हे भिक्षुओ अगर किसी भी प्रकार की शंका आपके मन में धम्म के प्रति हो तो कृपया कहो , कही ऐसा न हो की मेरे महापरिनिर्वाण के बाद आपके मन में विचार आये की हमारा शास्ता जब यहाँ मौजूद था उस वक्त हमने उससे हमारी शंका कथन नहीं की " | अपने जीवन की आखरी घडी में भी बुद्ध अपने अनुयायी को शंका पूछने के लिए उकसाते है | ऐसा करने वाला वो दुनिया का एकमात्र धर्म संस्थापक है | ख्रिश्चन ,मुस्लिम ,हिंदू इन जैसे धर्मो ने अपने धर्म के गुरु निर्माण करते हुए , उनके आदेशानुसार चलने पर लोगो को विवश कर दिया पर बुद्ध ने अपने संघ का निर्माण धम्म के आदेशो पर चलने वाला लोकसमुदाय है और वह जैसा बोलता है वैसा चलता है इस उदहारण के लिए किया | मुस्लिम और हिंदू इन दोनों धर्मो ने तो बलि प्रथा को बड़ा ही पवित्र माना पर बुद्ध ने किसी भी प्राणी की हत्या करने पर अपने धम्म में आने वाले को पहले ही पंचशील में वैसा शील रखकर प्रतिबन्ध लगाना चाहा | बुद्ध ने चार्वाक का तर्क स्वीकार किया | चार्वाक कहते है " बलि दिए जाने वाले को यदि स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो आप लोगो ने अपने स्वयं के पिता की बलि देनी चाहिए " | बुद्ध कहते है ,  " बलि के प्राणी के जगह मेरे प्राणों की आहुति देने पर आपको ज्यादा पुण्य प्राप्त हो सकता है " ऐसा राजा से कहने वाला बुद्ध एकमात्र धर्म संस्थापक है | मुस्लिम और हिंदू धर्म में स्त्रियों को बड़ा ही निचला दर्जा प्रदान किया गया है ( उदाहरण देना मुझे जरुरी नहीं लगता ) | " स्त्री वर्ग को धम्म का भिक्षु पद देकर स्त्री को समानता का दर्जा देने वाला बुद्ध सबसे पहला धर्म संस्थापक है | बुद्ध अपने उपदेश में कहते है " स्त्री पुरुष से महान होती है क्योकि वो चक्रवर्ती सम्राट को जन्म दे सकती है | वो एक बुद्ध को जन्म दे सकती है "| ऐसे उपदेश देकर बुद्ध ने उस वक्त की सामाजिक व्यवस्था को पूरा हिला दिया |  " स्त्री अपने प्रयासों से निर्वाण पद , अर्हत पद , बुद्ध पद पर भी पहुच सकती है " यह बुद्ध के धम्म की मान्यता है |
      "मानव के कर्म से मानव ऊँचा या निचा सिद्ध होता है जन्म से नहीं " ऐसा बुद्ध ने स्पष्ट रूप से कहा | उस वक्त के भारत में धार्मिक जातीयता को पूरी तरह से रोंदते हुए उसने अपने संघ में अछूत माने जाने वाले समाज को भी आदर प्राप्त करने का अवसर दिया, हर पद पर पहुचने का अवसर दिया | संघ के कई नियम आज कई देशो में लोकतंत्र में इस्तेमाल किये जाते है | धर्म कौनसा मानना है ? या कौनसे ईश्वर की पूजा करनी है ? ये तो पूरी तरह व्यक्तिगत बात है पर धम्म व्यक्तिगत ना होकर सामाजिक है | अकेले आदमी को धम्म की कोई आवश्यकता नहीं पर जब आदमी के बिच के संबंधो की बात आती है तब धम्म बिना समाज होना संभव नहीं है क्योकि नीतिमत्ता मतलब धम्म | इंसान के बिच के सम्बन्ध से ही धम्म की शुरुवात होती है | धम्म ( नीतिमत्ता ) के बिना समाज जंगली हो जाएगा इसलिए आपको नीतिमत्ता समाज में प्रस्थापित करने के लिए धम्म अपनानाही पड़ता है | धर्म में दो आदमी के बिच के संबंधो को महत्व ना देते हुए स्वयं के मोक्ष को ज्यादा महत्व है | निरीश्वरवादी रहने वाले व्यक्ति को धर्म गद्दार समझता है | उदा .नास्तिक जिसका कोई अस्तित्व नहीं ), काफ़िर (जो मानवता को गद्दार हो चूका हो ) .......ऐसे शब्द निरीश्वरवादी लोगो के लिए धर्म इस्तेमाल करता है | ऐसे शब्दों से ही वे धर्म निरीश्वरवादी व्यक्ति के प्रति नफ़रत करते है ऐसा सिद्ध होता है  | धम्म निरीश्वरवाद को ही मान्यता देता है और इतना ही नहीं तो विरोध का हमेशा ही स्वागत करता है | धर्म ईश्वर , नर्क इन जैसी बातों का खौफ दिखाकर हर बात को इंसान के ऊपर जबरन थोपता है | बुद्ध अपने उपदेशो को अपने बुद्धि की कसौटी पर ताड़ना , परखना इस बात पर जोर देते है | धर्म के हिसाब से हर काम पहले से ईश्वर ने पूर्व नियोजित किये होते है | सब ईश्वर ने पहले से तय करके रखा है | आदमी मात्र कटपुतली है | मानव के जन्म का धर्म कोई प्रयोजन स्पष्टीकरण नहीं करता | धम्म इस बात को पूरी तरह से नकारते हुए | निसर्ग व्यवस्था इंसान के कर्म व्यवस्था पर निर्भर है | ऐसा उत्तर देता है और मानव का जन्म उस व्यवस्था को सँभालने के लिए हुआ है | मानव के जन्म का ध्येय धम्म स्पष्ट करता है | धर्म पूजा ,अर्चा , ईश्वर की स्तुति ,कर्मकांड में विश्वास करना इन जैसी बातों को महत्व देता है पर धम्म आचरण को महत्व देता है | धर्म में आचरण करना आप अपने मोक्ष प्राप्ति के लिए करते हो या ईश्वर के खौफ से करते हो | और धम्म में सभी को सुखी रखना और स्वयं सुखी होकर अपने निर्वाण तक पहुचने के लिए आचरण को महत्व दिया जाता है | धम्म अज्ञानता पर टिका करता है | धम्म हर बात को जांचने , परखने के लिए कहता है | धम्म किसी भी बात पर महज विश्वास करने की शिक्षा को नकारता है | धम्म स्वयं को भी जांचने ,परखने की कसौटी पर खरा उतरता है | धम्म गरीबी को दुखी मानता है | धम्म शील को महत्व देता है | धम्म करुणा (मानव ने मानव प्रति प्रेम करना ) की शिक्षा देता है | धम्म करुणा के भी आगे जाकर मैत्री ( सभी प्राणिमात्र से प्रेम करना ) सीख देता है | जीस वजह से आपकी किसी भी प्राणी की हिंसा करने की इच्छा न हो | धम्म पंचशील देता है | जो की सारे मानव प्राणी को सुखी होने के लिए जरुरी है | धर्म ऐसी बाते समाज को नहीं सिखाता नहीं उस पर चलने का महत्व प्रतिपादन करता है |
       ऐसे महत्वपूर्ण फर्क होने के कारन दुनिया के विद्वान बुद्ध के धम्म को धर्म मानने के लिए तैयार नहीं होते | इन जैसी बातों पर गौर किया जाए तो फिर बुद्ध का उसी का शब्द ' धम्म ' अधिक योग्य लगने लग जाता है | वास्तविक धर्म का पाली शब्द धम्म ही है पर दुनिया के किसी भी धर्म की तुलना बुद्ध के धम्म से करने पर बहोत ही फर्क दिखाई देने लगते है | इसलिए सवाल खड़ा हो जाता है की उसे धर्म कहना उचित होगा या नहीं ? " एक विशिष्ट महामानव के उपदेश पर चलने वाला मानव समूह उसे उस धर्म का व्यक्ति कहा जाता है " ऐसी कुछ सयुक्तिक व्याख्या अगर धर्म की लगाईं जाए तो ही बुद्ध के धम्म को धर्म कहने में ठीक लगेगा | वैसे आज की दुनिया में अगर धम्म को धर्म कहा जाए क्योकि वो एक भाषा का फर्क है तो ठीक है पर इतने बड़े फर्क को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ऐसे मेरा मानना है | धन्यवाद
 ( अभिजीत गणेश भिवा )

मंगळवार, २ ऑगस्ट, २०११

बौद्ध आणि महार ह्या समाजांचा आंतरधर्मीय व आंतरजातीय विवाह



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फार महत्वाच्या मुद्यावर विचार मांडण्याचे धारिष्ट्य करत आहे पण भविष्याच्या दृष्टीकोनातून ह्यावर ह्या समाजाने विचार करावा असे मला तरी आवश्यक वाटते .आधी तर बौद्ध आणि महार हे शब्द वेगळे आहेत हे मी स्पष्ट करू इच्छितो .पण ज्यांनी बौद्ध धम्मात धर्मांतर (ज्या धर्मात होते त्या जुन्या धर्माला सोडून विचार ,आचार , उच्चार आणि कागदोपत्री इ .सहित  ) केले नाही ते लोकही डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ह्या महापुरुषामुळे बौद्ध धम्माचा अर्थ समजू लागले आणि त्यात आघाडीवर असणारा समाज तो महार आहे असे मला वाटते .मला ह्याचीही कल्पना आहे कि मी हे दोन्ही शब्द एकच ठिकाणी वापरले त्यामुळे बऱ्याच लोकांचा नाराजीचा सूर निघेल पण मला माझा मुद्दा त्यापेक्षाही अधिक महत्वाचा वाटतो .असो  |
      बौद्ध आणि महार समाज आज रोजी उच्च वर्णीय लोकांशी विवाह करण्याच्या निर्णय प्रक्रियेत सर्वात पुढे आहेत असे निष्कर्ष सध्या तरी काढता येत आहेत .आणि ह्याने भविष्याला फार मोठी कलाटणी मिळू शकते .त्यामुळे आज रोजी ह्या मुळे बरेच प्रश्न उभे झालेले दिसून येतात . दोन्ही समाजाच्या तरुणी विवाहित करून घेण्यात उच्च वर्णीय लोकांना मोठी अडचण जाणवते आणि ह्या दोन्ही समाजालाही मुली देण्यात अडचणच जाणवते पण ह्याच ठिकाणी उच्च वर्णीय लोकांच्या तरुणी मोठ्या प्रमाणात ह्या समाजांच्या तरुणांशी विवाह करतांना आढळून येतात .नेमके ह्या प्रकरणाने पुढील भविष्याला काय वळण मिळेल ? हा विचार आज रोजी फार महत्वाचा होऊन बसला आहे .मला तरी असे वाटते कि जे लोक बौद्ध झालेत त्यांना तर जातीव्यवस्था ह्या फाल्तुक गोष्टीशी काहीही संबंध उरलेलाच नाही .जातीव्यवस्था असणे हि हिंदू धर्माची सर्वात मोठी समस्या आहे आणि त्यांनी आंतरजातीय विवाह करणे गरजेच आहे पण मदद म्हणून आणि देशकार्य म्हणून जर बौद्ध समाज आंतरधर्मीय विवाह करून घेत असेल तर ठीक आहे .पण त्यांचा सरळ मार्गे तरी जातीव्यवस्थेशी कोणत्याही प्रकारे संबंध नाही हे निश्चित आहे .
       आजचा बौद्ध आणि महार समाजाचा तरुण वर्ग मोठ्या प्रमाणात आंतरधर्मीय व आंतरजातीय विवाह करतांना आढळून येत आहे पण समस्या हि होऊन बसली आहे कि तो विवाह केल्यानंतर आपल्या समाजापासून दूर जाण्यात किंवा पाठ फिरवण्यात धन्य मानतो , असे का होते ? आंतरधर्मीय व आंतरजातीय विवाह हि बौद्ध आणि महार समाजासाठी भविष्यातील अडचण सिद्ध होऊन बसली आहे .हे कडवट पण सत्य आहे . ह्याचे कारण तरी काय ? ती तरुणी जी लग्न करते ती कि तो तरुण जो लग्न करतो तो ? वास्तविक आंतरधर्मीय व आंतरजातीय विवाह हा दोन संस्कृती , दोन वेगवेगळे समाज ह्यातील दुवा ठरतो ( इतरही खूप महत्व आहे ) पण हा बौद्ध आणि महार समाजासाठी विष ठरत आहे . नेमके याला कारण तरी काय ? ह्यातील दोष पाहून काहींनी तर येथ पर्यंत म्हटले आहे कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांचा ब्राम्हण स्त्रीशी लग्न करायचा निर्णय चुकला होता ( प्रत्यक्ष , अप्रत्यक्ष प्रकारे ) .मला अशी मते वाचल्यावर मोठा हसू येतो .जर आपल्यात सामर्थ्य नाही तर त्याचे खापर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ह्यांच्यावर कसे फोडता येऊ शकेल ? वास्तविक माझ्या मते डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांचा निर्णय फक्त स्तुतीस पात्र नसून ऐतिहासिक कलाटणी देणारा ठरला आहे .नेमका फरक हाच आहे कि प्रज्ञा भाग बौद्ध आणि महार समाजाने अजूनही विकसित केलेला नाही (अपवाद असतील ) .माझे व्यक्तिगत मत असे झाले आहे कि आंतरधर्मीय व आंतरजातीय विवाह करण्यास (उच्च वर्णीय समाजाच्या तरुण वर्गाशी ) अजून हि बौद्ध आणि महार ह्या समाजातील तरुण वर्ग परिपक्व झालेला नाही  (अपवाद असतील ) . परिस्थिती अशी होते कि येणारे मुल जे जन्मते ते आईच्या सहवासात सर्वात अधिक राहते .आणि आईने अजून हि देव , धर्म हि संकल्पना सोडलेली नसते .म्हणून त्याची आई त्याला ग म्हणजे गणपती आणि भ म्हणजे भटजी हेच शिकवते .त्या तरुणीचाचा जोडीदार तिला बौद्ध ( धम्म .अज्ञानातून प्रकाशाकडे जाणारा मार्ग  ) बनवण्यामागे व तिचे मनपरिवर्तन करण्यामध्ये अयशस्वी झालेला असतो .किंवा त्याला बौद्ध पद्धत किंवा बौद्ध म्हणून काही देणे घेणे नसते हा आजचा निर्णय त्याच्या पुढच्या पिढीवर फार परिणामक सिद्ध होणार हे नक्की ह्यात दुमत होऊच शकत नाही .पण तो ह्या बाबतीत पूर्ण उदासीन दिसून येतो .तसेच जर ह्या समाजातील तरुणीने आंतरधर्मीय किंवा आंतरजातीय विवाह केला असेल तर आपल्या जोडीदार पुढे तिचे काही एक चालत नाही त्याचा धर्म ,त्याचे देव ,त्याची जात ती शांत पणे स्वीकारून घेते .ती पूर्ण पणे आपल्या जोडीदाराच्या व सासरच्या मर्जी ,धर्म ,परंपरा , रुढी प्रमाणे वागायला तयार होते .ती आपल्या जोडीदाराचे स्वीकारते प्रथेनुसार परंपरा नुसार ,धर्मानुसार गुलाम होणे पसंद करते पण ज्या बुद्ध धम्मात स्वातंत्र्य ,समता ,बंधुता ,न्याय व असंख्य चांगले गुण आहेत तो तिला माहित नसतो किंवा ती बोलू शकत नाही किंवा बोलत नाही . त्याची गुलामीची प्रतीके सुद्धा वापरते . उदा.मंगळसूत्र ,जोडू ,कपाळावर कुंकू इ. आपल्या मुलाने जागृत राहिले पाहिजे ( ज्याचा आंतरजातीय विवाह झालेला आहे त्याचे पालक ) असे संस्कार त्याच्या आई वडिलांकडून त्याला भेटलेले नसतात .पर्यायी बौद्ध संस्कार त्याच्या वर झालेले नसतात .आणि त्यामुळे येणारी पिढी हि बौद्ध (अज्ञानातून प्रकाशाकडे जाणारा मार्ग ) न होता दैव वाद ,परम्परा यात अडकत चाललेली दिसते .कल्पनेवर विश्वास , देवावर विश्वास त्यातूनच आले . ह्यावर ( ज्यांनी आंतरधर्मीय व आंतरजातीय विवाह केला आहे ) त्या व्यक्तीला जर विचारले तर त्याचे म्हणणे असे असते कि  तिला \त्याला  तिचा  धर्म पाळण्याचे स्वातंत्र्य आहे . पण आपण त्या म्हणजे ज्याच्या सोबत विवाह केला त्याचे मन परिवर्तन करून किंवा हिंदू धर्म ( किंवा इतर ) हा एक कल्पनांनी भरलेला धर्म आहे हे सिद्ध करून देण्यात अपयशी ठरलो हे त्याला \तिला  लक्षात येतच नाही किंवा लक्षात घेण्याची त्याची गरज नसते . आणि परिणामी तो ह्या गोष्टीकडे दुर्लक्ष्य करतो आणि येणारी पिढी भरकटत जाते .जे आज पर्यंत घडले तेच पुढे घडते .याचे उदा .द्यायची मला तरी काही गरज दिसत नाही .पण ह्या वर माझे एक मत नेहमीचे असे कि ,आंतरजातीय विवाह करणे हे नक्कीच चुकीचे नाही पण लग्न करण्याआधी जर आपन प्रेमप्रकरण ( हि आजकालच्या तरुण वर्गाची भावना आहे  ) जर करत असू तर नक्कीच आपल्याला त्या व्यक्तीचे मनपरिवर्तन करण्यासाठी खूप वेळ मिळतो .तो वेळ घेऊन आपण त्या व्यक्तीचे मनपरिवर्तन करण्यासाठी प्रयत्न केले पाहिजे .लग्नानंतरही खूप वेळ मिळतो पण आपण ह्या गोष्टीचा विचारच करत नाही .किंवा आपण त्याचे स्वातंत्र्य आहे म्हणून युक्तिवाद करतो .स्वातंत्र्य आहे पण याचा अर्थ हा होत नाही का  ? कि , जे लोक असे करत असतील किंवा म्हणत असतील ते लोक आपल्या जोडीदाराने ह्या खोट्या गोष्टीतून बाहेर पडावे ह्या साठी जे जोडीदारा विषयीचे कर्तव्य आहेत त्या कर्तव्या पासून ते व्यवस्थित पलायन करतात ? तरी जर ह्या सर्व गोष्टींचा खालोखाल विचार केला तर माझे ह्यावर मत असे राहील कि , बुद्ध धम्मात किंवा आंबेडकरी तत्वज्ञानात जबरदस्तीला स्थान नाही .मनाने स्वीकारणे ,अनुभवातून जाणून घेऊन आणि पूर्ण चिकित्सक बुद्धीने स्वीकारणे ह्यालाच महत्व आहे तसेच जो चिकित्सक नाही जो धम्माला पारखत नाही तो बौद्ध होऊच शकत नाही किंवा म्हणताच येऊ शकत नाही म्हणून आधी आपण स्पष्टीकरण देऊ शकतो एवढे सामर्थ्यवान होणे गरजेचे आहे आणि आपल्या जोडीदाराला चिकित्सा केल्यानंतरच , अनुभव घेतल्यानंतरच स्वतः हून मनाने स्वीकारण्याची धम्मानुसार मुभा राहतेच . त्यासाठी बौद्ध आणि महार समाजाने आपल्या आपल्या मुलांमध्ये किंवा मुलींमध्ये आधी इतके सामर्थ्य भरावे कि , बौद्ध धम्म (अज्ञानातून प्रकाशाकडे नेणारा मार्ग ,एक जीवनशैली ,धर्म म्हणून नव्हे तर धम्म { मानवा मानवातील नितीमत्तेने चालणाऱ्या संबंधाविषयीचे तत्वे }म्हणून ) कसा योग्य आहे ? हे स्पष्टीकरण देण्याची प्रज्ञा विकसित झाली पाहिजे .आणि जर आई वडिलांचे संस्कार जर तसे झाले नसतील तर बौद्ध आणि महार तरुणाने \तरुणीने स्वतःच ते विकसित करावे आणि नंतरच आंतरधर्मीय आणि आंतरजातीय विवाह करण्याचा विचार करावा नाहीतर उगीच स्वतः च्या समाजाचे भवितव्य कचऱ्यात टाकू नये . आधी आपण बुद्ध धम्माचा व्यवस्थित अर्थ सांगू आणि स्पष्टीकरण करू शकू अशी प्रज्ञा स्वतः मध्ये निर्माण केली पाहिजे .
        उच्च वर्णीय लोकांच्या तरुणी तसे आपले भविष्य तपासून पाहण्यात चतुर दिसून येतात कारण ह्या दोन्ही समाजामधील जो तरुण प्रगती करणार ,अशी शाश्वती त्यांना वाटते ते त्याच्याशीच लग्न करतात .आणि ह्या समाजातील एका तरुणीचे नशीब पेटवतात . ह्या समाजातील तरुणींची संख्या दिवस दर दिवस वाढत चालली आहे आणि प्रगतीशील असणाऱ्या तरुणांची मानसिकता ह्या समाजातील ( बौद्ध आणि महार ) तरुणींशी विवाह करण्याची नाही .ह्या सामाजातील तरुणी इतर समाजातील तरुणांशी विवाह करण्यात मागे आहेत . तरुणांची संख्या मात्र अधिक आहे .फक्त आपल्याला एक उत्तम जोडीदार मिळावा हि आशा बाळगून जर आपण विवाह करत असू तर मग पुढच्या पिढीचा विचार करणेही गरजेचे आहे कि , आपली पुढील पिढी आपल्याला कशी निपजवयाची आहे ? भूतकाळ आपल्या हातात नक्की नाही पण वर्तमानकाळात काय करायचे हे आपल्या हातात नक्कीच आहे .भूतकाळापासून अनुभव घेऊन वर्तमानकाळात कार्य केल्यामुळे भविष्य काय घडले पाहिजे हे पूर्णपणे आपल्यावर अवलंबून असते . ह्या गोष्टीवर सर्व तरुण वर्गाने खालोखाल विचार करावा लेख वाढू नये म्हणून येथेच संपवतो अन्यथा बरेच मुद्यांचा उलगडा करता आला असता .
धन्यवाद
 { अभिजीत गणेश भिवा }

गुरुवार, २३ जून, २०११

* धर्मांतर ने दलीतो को क्या दिया ? * लक्ष्मण माने * ८ दिस .२००९ *


मैं साम्यवादी आन्दोलन में ३० - ३५ सालो से ज्यादा समय से सामान्य कार्यकर्ता बनकर निकाल चूका हू | धर्मनिरपेक्ष ,विज्ञानवादी ,सेक्युलर ऐसे दोस्तों के साथ मैं २५ - ३० साल काम कर चुका हू | कुछ दिन पहले जब मैं और मेरे भटके विमुक्त समाज के दोस्तों ने बुद्ध धम्मदीक्षा लेने का निर्णय लिया तब बहोत से लोग सोच में पड गए | कुछ लोगो को ऐसा लग रहा था ये क्या लक्ष्मण का नयाही पागलपन है | कुछ लोग तो मजा लेने के इरादे से कहने लगे क्या लक्ष्मण अभी ' नमो तत्स ' मैं कहता था ' हा जैसा होगा वैसा '| एक कम्युनिस्ट नेता बहोत साल से मेरे मित्र थे | वे मुझे कहते थे " क्या होगा तुम्हारे धर्मांतर से ?" हम सब सेक्युलर लोग है धर्म के तरफ पीठ करके खड़े रहते है , अच्छा जिन्होंने बौद्ध धम्म का स्वीकार किया उनका भी क्या हुआ ? फिर तुम्हारे जाने से क्या होगा ? तब मैंने उनको शांति से उत्तर दिया | "हा हम सारे सेक्युलर , आप मराठा सेक्युलर ,भाई वैद्य ब्राम्हण सेक्युलर , बाबा आढाव मराठा सेक्युलर , जनार्दन वाघमारे माली सेक्युलर , जनार्दन पाटिल कुनबी सिक्युलर और मैं कैकाडी सेक्युलर ऐसा है हमारा सेक्युलारिझम | सेक्युलर बोलने में आपका क्या जाता है ? जातिके सब फायदे तुम्हारे थाली में गिरते ही है | उनका आपने कभी इनकार किया है ? समाज की वास्तविक प्रतिष्ठा जाती के सीडियों नुसारही मिलती हैं ना ? मैं अगर कैकाडी रहने वाला हू तो फिर तुम्हारा सेक्युलारिझम मेरे और मेरे समाज के क्या काम का ? और जो पहले धर्मान्तरित हुए अगर उनके बारे में आप पूछेंगे तो मैं आपको दो ही बाते पूछूंगा | "एक महार मुझे ऐसा दिखा दो जो मरे हुए जानवर खींचता हो और मरे हुए जानवर का मांस खाता हो मैं उसे एक लाख रूपये दूंगा और ऐसा महार बता दो जिसे बताना पड़े की तुम्हारे लड़के को स्कुल में भेजो | उसको भी एक लाख रूपये दूंगा "| "इस सवाल का जवाब मैंने कुछ मजाक के लिए दिया नहीं था " |" धम्मचक्र प्रवर्तन अभियान में भंडारा से कोल्हापुर तक मैं हर सभा में पूछता था , एक महार मुझे ऐसा दिखा दो की जो मरे हुए जानवर का मांस खाता हो या खिचता हो | मैं उसे एक लाख रूपये दूँगा | आज तक मुझे ऐसा महार मिला नहीं | "
क्या मतलब है इस घटना का ? किस परिस्थिति में बाबासाहब ने इस हिंदू धर्म का त्याग किया | (मुंबई इलाखा महार परिषद यह ऐतिहासिक परिषद मुंबई में ३०, ३१ में और १ व् २ जून १९३६ को चार दिन चली | " मुक्ति कौन पथे ?" इस नाम से बाबासाहब का भाषण प्रसिद्ध है |) १९३६ को बाबासाहब बोले थे , " सरकारी स्कूलों में लडको को दाखिल करने का हक बताने के पश्चात , कुओपर पानी भरने का हक बताने के पश्चात , बारात घोड़े से लेकर जाने का हक बताने के पश्चात , स्पृश्य हिन्दुओने मारने की बहोत सी घटनाए सब के आँखों के सामने हमेशा रहती है | महंगे कपडे पहनने के कारन , गहने पहनने के कारन , पानी लाने के लिए ताम्बा , पीतल के बरतन उपयोग में लेने के कारन , जमींन खरीदने के कारन , जानवे पहनने के कारण , मरे हुए जानवर न खींचने के कारन और मरे हुए जानवर का मांस न खाने के कारन , पैर में जुते और मोज़े पहनकर गाव में से जाने के कारन , मिले हुए स्पृश्य हिंदू को जोहार ना करने के कारन , शौच को जाते वक्त लोटे में पानी भरने के कारन , शादी के वक्त पंचो को रोटी परोसने के कारन , ऐसे बहोत से कारणों के लिए अमानुष अत्याचार , जुलुम किये जाते है | बहिष्कार डाला जाता है | समय पड़ने पर झोपडी ,या आदमी को जला डालने के वृत्ति का सामना करना पड़ता है | मनुष्यहानि होती है | मेहनत का पैसा नहीं देना | खेत में से जानवरों को जाने नहीं देना | आदमियों को गाव में आने नहीं देना वगैरा सब प्रकारकी बंदी करके स्पृश्य हिंदू लोगो ने अस्पृश्य हिंदू लोगो को ठिकाने पर लाने की घटनाओ की यादे आप में से बहोत से लोगो को होगी | परन्तु ऐसा क्यों होता है ? इसका कारन स्पृश्य और अस्पृश्य इन दो समाज में जो झगड़ा है वही है | एक आदमी पर हो रहे अन्याय का यह प्रश्न कदापि नहीं है | यह एक वर्ग ने दूसरे वर्ग पर किये जाने वाला अत्याचार है | यह वर्गकलह सामाजिक प्रतिष्ठा का कलह है | एक वर्ग ने दूसरे वर्ग से बरताव करते वक्त अपना बरताव कैसा रखना चाहिए इस सबंध का यह कलह है | इस कलह के जो उदहारण मैंने प्रस्तुत किये ; उससे एक बात खुलकर सिद्ध होती है ; वो यह की आप ऊपर के वर्ग से बरताव करते वक्त बराबरी के नाते से बरताव् करने का आग्रह करते हो इसलिए ही यह संघर्ष उपस्थित होता है | वैसा नहीं होता तो रोटी का खाना परोसने के कारन , महंगे कपडे पहनने के कारन , जानवे पहनने के कारन , ताम्बा , पीतल के लोटे में पानी लाने के कारन , घोड़े से बारात ले जाने के कारन यह झगडे हुए नहीं होते | जो अछूत रोटी खाता है ,महंगे कपडे पहनता है ,पीतल के बर्तन का उपयोग करता है , घोड़े पर बारात लेकर जाता है  वह ऊपर के जाती में से किसी का नुकसान नहीं करता | अपने ही पैसे का वह उपयोग करता है | ऐसा होते हुए भी ऊपर के जातियों को उसका घुस्सा क्यों आता है ? इस घुस्से का कारन एक ही है | वो यही की ऐसे समता का बरताव उनकी अप्रतिष्ठा को कारन बनाता है | आप निचे वाले लोग हो | अपवित्र हो | निचे की सीडी से ही आप रहोगे तो वे लोग आपको चैन से जीने देंगे | सीडी छोड़ी तो झगड़े को शुरूवात होती है | यह किस्सा निर्विवाद है | "
मैं बहोत छोटा था | तब मैंने देखा है , गाव गाव में महार लोगो की बस्तियों पर बहिष्कार हो रहे थे | आदमियों को गाव में आने नहीं दिया जाता था | पानी भरने के लिए बंदी थी | पिसाने की चक्की बंद हुआ करती थी | किराना माल के दूकान बंद हुआ करते थे | गाव गाव के महारो ने , मतलब पहले के दलित वर्ग ने बाबासाहब से धम्म दीक्षा ली थी | महाराकी , तरालकी , येस्करकी , सन्देश पहुचने का काम (अलग अलग जातियों के नीच काम ) करना बंद कर दिया था | पीढ़ी दर पीढ़ी से कर्तव्य समझकर गाव गाव में जो काम करने पड़ते थे वह फिर लकडिया फोड़ने का काम हो , सन्देश देने का , जानवर खींचने का यह सब कामो से इनकार कर दिया गया था | यह बहोत बड़ी बगावत थी | सेकडो सालो से घर में पूजने वाले ३३ कोटि ईश्वर की प्रतिमाए एक ही रात में नदियों में फेंक दी गयी थी | मरी माँ ,लक्ष्मी माँ के मंदिर निर्जन होने लगे थे | सारे काले धागे ,गले में की मालाए , सरपर के बाल सब फेक दिए गए थे | गाव गाव में , बस्ती बस्ती में बुद्ध वंदना गूंजने लगी थी | सब आखाडे , मंदिर , विट्ठलमंदिर का बुद्ध विहार में रूपांतर होने लगा | उनके नामो के आगे जाती ,धर्म जाकर "बौद्ध" लिखा गया | बच्चोके , मकानों के , गाव के , रास्तोके , संस्थाओ के नाम बदलने लगे | सारा समाज उत्साहित हो गया | साप ने अपने केंचुली फेक देना वैसे ही कैचुली फेंककर वो समाज उत्साहित होकर खड़ा हो गया | एक नयी अस्मिता लेकर यह समाज अन्याय , अत्याचार , जुलुम इनके विरोध में पैर गाडकर खड़ा हो गया | सब गुलामी के प्रतिक फेक दिए गए (काले धागे , कंबर में के धागे ,चांदी के गहने , गले में के गुलामी प्रतीत होने वाले गहने इ.) | बौद्ध कालीन इतिहास और संस्कृति का प्रतिबिम्ब सब तरफ दिखने लगा | मेरी पीढ़ी इस सब घटनाओ की साक्षी है | बौद्ध स्थापत्यकला नए मकानों पर विराजमान होने लगी | बुद्ध जयंती जोर शोर से बनाई जाने लगी | सब लोग दारू छोड़ने लगे | मेलो पर होने वाला बहोतसा खर्च , मुर्गी-बकरों की बलि देना , शरिर में बाबा आना इनके विरोधी वातावरण बनने लगा | विवाह समारंभ , नामकरण .अन्त्य विधि बदलने लगे | शादी अन्त्याविधि में का बाजा बजाना बंद होने लगा |  डफली , हल्गी जाने लगी | गाव की नोकरी गयी | समाज गाव से बहार जाने लगा | अंगारा धुपारा , बुवा-बाबा , पोतराज ने अपने शरीर के ऊपर के आई के कपडे नदी में फेक दिए | अपने मनुष्यत्व का शोध शुरू हुआ | गुलाम्रिरी के गहनों को छोड़ दिया गया | लोगो ने गाव छोडो शहरों के तरफ चलो यह मन्त्र स्वीकार कर लिया | और लोग गाव के नरक से इस गुलामी के कैद से आझाद होने लगे | ईश्वर के कैद से मुक्त होने लगे | कर्मकांड के लफडो से बहार पड़ने लगे | कल तक बदन में आने वाली मरी माँ नदी में विसर्जित की गयी इसलिए माँ का कोप ( घुस्सा ) हुआ नहीं | चुपचाप सब बदन में के ईश्वर भाग गए | लोग गुलामी से मुक्त होने लगे |
शिक्षित बनो , संघटित हो जाओ और संघर्ष करो यह मन्त्र मन ही मन में इस समाज ने स्वीकार लिया | इस समाज ने पढ़ने का ध्येय रख लिया | बोझा उठाऊंगा , खेत में काम पर जाऊंगा कुछ भी करूँगा पर मेरे लड़के को पढ़ाउंगा | डॉ.आंबेडकर का ध्येय सब समाज ने ले लिया | सबके बच्चे डॉक्टर ,इंजिनियर हुए ऐसा नहीं है पर सबने प्राथमिक पढाई जरुर की | आज इस समाज का शैक्षणिक प्रमाण ८६ %  इतना है | आज धर्मांतर के ५० साल बाद अड.शंकर खरात , डॉ.भालचंद्र मूनगेकर , और डॉ. नरेन्द्र जाधव ये महाराष्ट्र के नामवंत मुंबई , औरंगाबाद , पुणे इन विद्यापीठ के कुलगुरु है | यूनिवर्सिटी ग्रट कमिशनरके आज के अध्यक्ष डॉ. सुखदेव थोरात पुरे  देश के उच्च शिक्षण की धुरा संभाल रहे है | , और डॉ.भालचंद्र मूनगेकर प्लानिंग कमिशंन के सदस्य है | डॉ. रेद जाधव यह अंतरराष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्रज्ञ है | वे रिजर्व बैंक के सलाहगार के पद पर रह चुके है | सेकडो लोग पि.एच.डि. हुए है | हजारों डॉक्टर , इंजिनियर , आर्किटेक्ट , प्राध्यापक है | समाज का मुख्य भाग समझे जाने वाले आय.पि.एस.,आय.ए.एस . कितने ही इस अम्बेडकरी समाज से है | गर्व होना चाहिए ऐसा उच्चवर्ग , माध्यम वर्ग इस समाज में निर्माण हो चूका है | पहनावा , भाषा , मकान सब बदल चुका है | पहले के ज़माने में "रोटी दे ना माँई हमको" ये इतिहास में जमा हो चूका है | यु.पि.एस.सी. , एम.पि.एस.सी .इन सब परिक्षाओ में एक नम्बर पर ब्राम्हण है और दो नंबर पर पहले के महार और अभी के बौद्ध है | विद्वत्ता के सब क्षेत्रो में इन दो समाज में ही स्पर्धा शुरू है | सबसे ज्यादा ब्राम्हण लड़कियों ने पहले अछूत रहने वाले इस समाज के लडको से ही अंतर जातीय विवाह किये हुए दिखाई देते है | रोटी व्यव्हार की क्रान्ति तो हुई ही है पर बेटी व्यवहार की क्रान्ति भी इसी समाज में होती है | बेटी व्यवहार अपने बराबरी के आदमियों के साथ ही होता है | साहित्य के क्षेत्र में भी दलित साहित्य ने अपना स्वतंत्र इतिहास निर्माण किया है | कथा ,कविता , उपन्यास , नाटक , निबंध , चरित्र , प्रवास वर्णन और वैचारिक लेखन आदि क्षेत्र में के इनके कार्य से भले भले सरस्वती के सपूतो को मुह में ऊँगली डालनी पड़ जाती है | सिर्फ लिखा ही नहीं तो अपना वाचक वर्ग भी इन लोगो ने बड़े पैमाने पर निर्माण किया है | राष्ट्रिय , अंतरराष्ट्रीय ख्याति के बहोत से ग्रन्थ अभिमान और तेज से चमकने लगे है | दलित साहित्य , दलित महसूस , दलित आन्दोलन और अभी अम्बेडकरी आंदोलन यह देश के अन्य किसी भी प्रान्त में बना नहीं वह महाराष्ट्र में ही बना है | इसका कारन स्वत्व .स्वाभिमान ,स्वातंत्र्य , और अस्मिता इनकी बीजे जिस बाबासाहब ने लगाईं उस अम्बेडकरी भूमिमे देश का पहला साहित्य में का विद्रोह मराठी में ही हुआ | लोग मजाक में बोला करते है "ब्राम्हण ने मटन महंगा किया और दलितो ने किताबे "  "ब्राम्हण के घर लिखना , कुनबी के घर दाना और महार के घर गाना " ये आंबेडकर वादियों ने अभी मिटा दिया है | अब दलितो के घर लिखना और ब्राम्हणों के घर गाना ऐसा नया समीकरण अगर रखा जाये तो किसी को ऐतराज नहीं होगा | दीक्षाभूमि पर लगने वाली किताबो की दुकाने ,गाव -गाव भरने वाले साहित्य सम्मलेन और उस साहित्य सम्मलेन के बहार लगी हुई किताबो की दुकाने ,सीडी ,कैसेट्स ,इनकी दुकाने सचमुच आश्चर्यकारक विषय है | किसी तीर्थक्षेत्र पर हार , तुरे , मालाए , नारियल , सिंधुर ,  दुपट्टे, चादर यह रहता है | पर दीक्षाभूमि पर हजारों ग्रन्थ की भीड़ दिखाई देती है | हिंदू तीर्थक्षेत्र से हिंदू भाई ' गंगाजल ' लाते है | मुस्लिम भाई हज से 'आब -ए-जमजम ' लाते है | पर बौद्ध भाई दीक्षाभूमि से बुद्ध और बाबासाहब की ग्रन्थसंपदा और प्रतिमाए लाते है | जिस समाज को अक्षर बंदी थी , वो समाज ज्ञानकांक्षि बनाया बाबासाहब और बुद्ध धम्म के आंदोलन ने | यह ज्ञानकांक्षाही धम्म का सामर्थ्य है |
गाव छोड़कर शहरो के तरफ चलो यह मन्त्र बाबासाहब ने दिया | अंधकार युग का अंधकार कूप ( सीडिया न होने वाला कुवा ) साबित होने का डर पहचानकर बाबासाहब ने गाव को केंद्रबिंदु ना बनाते हुए | व्यक्तिको विकास का केंद्रबिंदु बनाया | डॉ.भाऊ लोखंडे इन्होने उनके एक लेख में खूबसूरती से बाबासाहब के गाव विषयक विचार दिए हुए है |
अ ) जब तक अछूत लोग गाव के बहार रहते है | जीनको उदरनिर्वाह का साधन नहीं , उनकी लोकसंख्या हिंदू के हिसाब में कम है , तब तक वे अछूत ही रहेंगे | हिन्दुओ का जुलुम और अत्याचार शुरुही रहेंगे और स्वतंत्र , समर्थ जीवन जीने के लिए वे असमर्थ ही रहेंगे |
ब )स्वराज्य मतलब हिंदू राज्य ही होगा | उस समय स्पुष्य हिन्दुओ के तरफ से होनेवाला जुलुम और अत्याचार बहोत बढ़ जाएँगे | उससे दलित वर्ग का ठीक तरह से संरक्षण होना चाहिए |
क ) दलित वर्ग के मानव का पूर्ण विकास हो | उन्हें आर्थिक और सामाजिक संरक्षण मिले , अस्पृश्यता का उच्चाटन हो इसलिए परिषद का पूरा विचारपूर्वक निर्णय हो चूका है की , भारत में प्रचलित ग्रामपद्धति में सम्पूर्ण बदलाव होना जरुरी है | क्योकि बीते हुए कितने सालो से स्पृश्य हिन्दुओ की तरफ से दलित वर्ग को जो अत्याचार सहना पड रहा है उसे यह ग्राम पद्धति ही जिम्मेदार हुई है | गाव की दलित बंधुओ की परिस्थिति याद करके बाबासाहब बहोत रोते थे | वे कहते थे ,"गाव में रहने वाले मेरे असंख्य दलितो की परिस्थिति में सुधारना करने का मेरा उद्देष सफल नहीं हो सका | इसलिए मेरा उर्वरित जीवन और मेरे पास का मेरा सामर्थ्य मैं गाव-गाव के अछूत  जनता के सर्वांगीण विकास के लिए खर्च करने का निश्चय कर चूका हू | जब तक वह गाव छोड़कर शहरों में रहने के लिए नहीं आयेंगे , तब तक उनकी जीवन पद्धति में सुधारना नहीं हो सकती | गाव में रहने वाले यह हमारे अछूतो को पूर्वजो के गाव में रहने का लोभ छूटता नहीं है | उनको लगता है , वहां हमारे रोटी की व्यवस्था है | पर रोटी से ज्यादा स्वाभिमान को अधिक महत्त्व है | जिस गाव में हमें कुत्ते जैसा बरताव किया जाता हो , जिस जगह पर हर कदम पर हमारा मानभंग होता हो , जहा अपमान का स्वाभिमान शून्य जीवन जीना पड़ता है वो गाव किस काम का ? गाव के इन अछूतोने वहां से निकल कर जहा पडी हुई जमींन होगी उस जगह पर अधिकार करके नए-नए गाव बसाकर स्वाभिमान पूर्ण , इंसानियत का जीवन जीना चाहिए | वहा नया समाज निर्माण करना चाहिए | वहा के सब काम उन्हाने ही करने चाहिए | ऐसे गावो में उन्हें कोई अछूत कहकर बरताव नहीं करेंगा | "
बीते ५० सालो में दो जातियों ने गाव छोड़े | एक बौद्ध और दूसरे ब्राम्हण दोनों शहरों में रहने लगे | पहले अछूत होने वाले दलितो को खेती के उत्पादन में कोई स्थान नहीं था | ब्राम्हण वंश कायदे की वजह से और ४८ के गाँधी हत्या के बाद गाव से शहरों के तरफ बढे | जातियों की बहुसंख्या अल्पसंख्या यह स्थिति डरावनी है | संविधान में एक आदमी एक मूल्य यह सिद्धांत बाबासाहब ने रखा होगा , वो संविधान ने स्वीकार किया होगा , संविधान ने स्वतंत्र-बंधुता-न्याय यह तत्व स्वीकार कीये होगे , फिर भी वास्तव में हिंदू नामकी चीज ही नहीं होती | वहां जातीया होती है और जाती ही राजकारण का रूप लेकर अल्पसंख्य ,बहुसंख्य साबित करती है इसलिए जतियोसे अल्पसंख्य व जतियोसे बहुसंख्य यही सूत्र सत्ता, सपत्ति और प्रतिष्ठा की पुनरचना में महत्त्व के होते है | इस परिस्थिति पर अल्पसंख्य जातियों ने गंभीरता से सोचने की जरुरत है , ऐसा मुझे लगता है | इस देश में जाती बदलते ही नहीं आती ऐसा रोज बताया जाता है | पर पहले के बौद्ध लोगो ने यह सिद्ध किया है की , जाती बदल सकती है ; उसका वास्तव भी बदलते आता है | अब जिन्होंने धर्म बदला नहीं उनकी क्या परिस्थिति है ? महाराष्ट्र के अछूतोमे पहले नंबर पर महार थे और दो नम्बर की संख्या पहले के मातंग समाज की है | अब अछूत कोई रहा नहीं | डॉ.बाबासाहब आंबेडकर ने कलम के एक फटके में अछूत व्यवस्था बदल डाली | इन दोनों के अलावा बाकि छोटी छोटी जातिया है , जो आज भी गाव में मौजूद है | उनकी स्थिति क्या है ? उनके साक्षरता का प्रमाण क्या है ? मातंग समाज में एक दो अपवादात्मक छोड़कर कोई भी आय.ए.एस अधिकारी नहीं है | अपवाद से ही कोई आय.पी.एस होगा | यही परिस्थिति बाकि परिक्षाओ की है | जिस जगह पर पहले के महारोने गाव छोड़ दिए | गाव की गुलामी छोड़ दी , वह सब काम मातंग समाज पर ढो दिए गए और उन्होंने वे स्वीकार कर लिए | इस वजह से एक दो % भी शिक्षित होगे की नहीं इसकी चिंता करनी चाहिए | सब मातंग , चमार ,ढोर , इन सबका शैक्षणिक विकास पिछले ५० सालो में कितना हुआ इसका स्वतंत्र अभ्यास होना चाहिए | डॉक्टर ,वकील ,प्राध्यापक ,इंजिनियर ,कलेक्टर ,कमिशनर इन समाज का प्रशासन यंत्रणा में क्या प्रमाण है ?  इसकी पूरी जानकारी की पढाई होने की जरुरत है |
आज अन्याय , अत्याचार सबसे ज्यादा हो रहे है वह मातंग समाज पर | मातंग लोग गाव में जो काम करते है वो डफली बजाना इतना भी ध्यान में लिया तो क्या समझता है ? डफली बजाने का पूर्वजो का धंदा उनको माथे पर मारा हुआ है | मातंग समाज खुद को हिंदू ही समझता है | उन्होंने हिंदू के त्योंहार, उत्सव में डफली बजाना ही चाहिए नहितो उसका परिणाम उन्हें भुगतना पडताही है | उन्होने डफली बजायी या नहीं बजायी फिर भी उसे बजरंग बलि के मंदिर में जाने नहीं दिया जाता | और गया तो मार बैठता ही है | अभी कुछ महीने पहले ही औरंगाबाद जिले में साकेगाव यहाँ के सुनील आव्हाड इन्होने पोला इस त्यौहार के दिन डफली बजाने के लिए इनकार कर दिए जाने पर उसे कुछ गाव के जतियवादी लोगो ने उसे ऊपर लटकाकर बहोत मारा | उनके घर पर धाबा बोल दिया और उनकी घास फूस से बनाई हुई दीवारे गिरा डाली | उसका छोटा भाई , पिताजी इनको भी लातो घुसो से मारा गया | जलगाव जिले में मुक्ताईनगर तहसील में कोथली नामक गाव के भाजप के विधानसभा गटनेता एकनाथ खलसे इनके लड़के ने पोला त्योंहार को डफली बजाने पर इनकार कर देने पर नीना अढायके इस मातंग नौजवान को बहोत मारा | उसके बच्चे और बीवी को भी मारा | इस दोनों घटनाओ में अन्याय करने वाले पोलिस पाटिल , सरपंच , और बाकि के लोग है | बिलकुल कुछ महीने पाहिले की घटना है | रोज कही ना कही ऐसी वारदाते होती ही रहती है | सब घटनाए रजिस्टर होती ही है ऐसा नहीं है |

डफली बजाना चाहिए की नहीं यह उस व्यक्ति के स्वतंत्रता का प्रश्न है | पर यह स्वातंत्र मातंग लोगो को है क्या ? सोलापुर जिले में चर्मकार बहन पर पाच छे महीने पाहिले ही जबरदस्ती हुई | क्या उसने किसीका घोड़ा मारा था ? वो हिंदू है अछूत है | और वह पाटिल बताएगा उस बात को हा नहीं बोलती तो दूसरा क्या होगा ? जब तक ये सब हिंदू रहेंगे तब तक उनपर ऐसे ही अन्याय होते रहेंगे | और वही स्थिति भटके विमुक्त लोगो की है | दलितो का बहिष्कृत भारत ! हमारा तो उध्वस्त भारत | हमारे तो मनुष्यत्व को अर्थ ही नहीं | स्वातंत्रता को ६० साल बीत गए पर हमारा शैक्षणिक प्रमाण ०.०६ % है | अन्न .वस्त्र ,मकान इन किसी सुविधाओं का तो हमें अभी तक स्पर्श ही नहीं | एक जगह पर यह समाज तिन दिन से ज्यादा रहता ही नहीं | इसलिए मतों के राजकारण में उनको कोई पूछता ही नहीं | अल्पसंख्य होना यह इनका गुनाह है | जबतक यह लोग लमान , कैकाडी , माँकडवाला , वडार ,कोल्हाटी रहेंगे तब तक यह लोकशाही तक पहुच ही नहीं सकते | लोकशाही में इनका कोइ प्रतिनिधि ना होने के कारण ६० साल में क्या स्थति हुई है ? यह हम देख ही रहे है | इसलिए जाती नष्ट करने के आलावा कोई पर्याय नहीं है | जिन्होंने जाती नष्ट की वो आगे गए | वे बौद्ध रहो , ख्रिश्चन रहो या मुस्लिम रहो | जिन्होंने अपनी जाती छोड़ी नहीं ,  जिन्होंने अपनी जाती की मानसिकता नहीं छोड़ी , वर्ण व्यवस्था की गुलामी नहीं छोड़ी वो जोर से पीछे जा रहे है | फिर वे मराठे हो ,माली हो या कुनबी हो | ब्राम्हण छोड़कर सब गरीब वर्ग जोर से पीछे जा रहे है | इन सब का गंभीर रूपसे विचार करने पर मैं और मेरे साथवाले दोस्तों ने तथागत गौतम बुद्ध और बाबासाहब ने बताया हुआ मार्ग स्वीकार किया है | सुविधाए मिले अथवा न मिले | हमें हमारे पैरों पर खड़ा होना ही पडेगा | क्योकि जो पैरों पर खड़े हुए वही आगे गए | लाचार केंचुओ ( Earthworm)  की फ़ौज की तरह जीने से अच्छा विद्रोही बनकर जीना और अस्मिता की खोज के लिए निकलना मुझे ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगता है |
 -लक्ष्मण माने (अनुवाद -अभिजीत गणेश भिवा )
(टिप -साथियों मैंने यह अनुवाद सिर्फ हिंदी समझने वाले लोगो के लिए किया है |अगर मेरे तरफ से कोई गलती हुई हो तो कृपया माफ़ करे | धन्यवाद .......)

शनिवार, १६ एप्रिल, २०११

आंबेडकर जयंती

बाबासाहेबांची जयंती १४ एप्रिल २०११ ला संपूर्ण जगात(भारतात म्हणणाऱ्या लोकांचा तो गैरसमज आहे) साजरी झाली आणि त्यांच्या जयंती महोत्सवानिमित्त खूप ठिकाणी विविध असे कार्यक्रम होतात.पण त्या निमित्ताने काही विचार होणे अगत्याचे ठरते .भारत नाव असलेला हा देश त्यांच्या विचारांवर चालायला का तयार नाही ? त्यांचे विचार चुकीचे तर नाहीत ना ? मित्रांनो मला असे वाटते  त्यांचे विचार क्रांतिकारक आहेत ते विचार पचवण्यास भारत देश सध्या तरी असमर्थ ठरलाय .इतकेच काय तर ते ज्या समाजात जन्माला आले तो समाज सुद्धा त्यांचे विचार पचवण्यास असमर्थ ठरलाय .ज्याने त्यांचे विचार मानले त्याची प्रगती नक्कीच झाली .ज्यांनी नाही मानले बाबासाहेबांच्या कार्यामुळे वास्तविक पाहता त्यांनी सुद्धा प्रगती केली .बाबासाहेब आंबेडकर ह्यांचा ज्यावेळेस हि विचार करावा तेव्हा मोठ्या खेदाने म्हणावे लागते कि त्यांच्यावर लागलेला अस्पृश्यतेचा कलंक आजपर्यंतही गेला नाही .त्यांचे विचार न स्वीकारण्यामागे हे एक खूप मोठे कारण आहे .काही लोक म्हणतील अहो आता अस्पृश्यता शिल्लक नाही पण खेदाने म्हणावे लागते कि हे सत्य नाही.बाबासाहेब भ.बुद्ध आणि त्यांचा धम्म ह्या ग्रंथाच्या प्रस्तावनेत म्हणतात 'मला दोन प्रश्न नेहमी विचारले जातात  ,पहिला असा कि मी इतके उच्च शिक्षण कसे घेऊ शकलो आणि दुसरा मी बुद्ध धम्माकडे का वळलो ,हे प्रश्न मला ह्या करता विचारण्यात येतात कारण मी अस्पृश्य जातीत जन्माला आलो .' हि त्यांच्या मनाची कळकळ त्यांनी ह्या ठिकाणी मांडून दाखवली आहे .
        बाबासाहेब आंबेडकर इतका विद्वान माणूस हे तर सर्व लोकांनी मान्य केले त्या वेळेस हि आणि आजही मग त्याच्या हिंदुकोड बिलाला विरोध का ?त्याच्या धर्मांतराला विरोध का ?एवढे कमी पडले म्हणून कि काय बाबासाहेबांनी ज्या वेळेस धर्मांतर केले त्या वेळेस त्यांच्या समाजाला आरक्षण जाईल अशी काही लोकांनी का  भीती घातली ? बाबासाहेब खूप विद्वान आहेत ना मग त्यांचा धर्मांतराच निर्णय मूर्खपणाचा असू शकतो काय ?वा एका तोंडाने म्हणायचे कि बाबासाहेबांइतका बुद्धिमान कोणी नाही आणि दुसऱ्या बाजूने त्याला प्राणपणाने विरोध करायचा.त्यानंतर इतक्या बुद्धिमान माणसाला भारतरत्न हा किताब १९८९ साली द्यायचा .म्हणजे महापरिनिर्वाणानंतर २१,२२ वर्षांनी .वास्तविक पाहता त्यासाठीही व्ही.पी.सिंग यांच्या सरकारची वाट पहावी लागली तिथपर्यंत कॉंग्रेस झोपली होती कि काय ? नाही कॉंग्रेस झोपली नव्हती तर यालाच म्हणतात जातीयवाद .आजही आंबेडकरांच्या समाजाला हे लोक गुन्हेगार बनवण्याच्या मागे लागलेले आहेत .मुंबईला , नागपूरला ज्या वेळेस आंबेडकरांचा समाज जातो तेव्हा विना तिकीट जातो आणि त्यांना तिथे जाण्यास हेच सरकार मदत करते .बाबासाहेब आंबेडकरांनी कधीही असा विचार केला नसेल कि माझा समाज माझ्यानंतर ५० वर्षांनी सुद्धा विना तिकीट प्रवास करेल त्यांची तर अपेक्षा होती कि माझा समाज तिथपर्यंत श्रीमंत होईल आणि चार चाकी गाडी मध्ये येईल.पण त्यांच्या पश्चात ना सरकारने त्या लोकांना पुढे येण्यासाठी खास असे प्रयत्न केले ना त्या लोकांनी कधी तशी इच्छा केली .आजही त्यांच्या समाजात कित्येक गटात विभाजन झालेले आहे.आणि त्यात कमी पडले म्हणून कि काय त्यांच्याच समाजातील पुढाऱ्यांनी त्यांना चुकीच्या वाटेवर लावले .जयंतीवर लाखो करोडोचा पैसा खर्च होऊ लागला ,ज्या बुद्ध धम्माची दीक्षा बाबासाहेबांनी मोठ्या कष्टाने दिली त्याच्याच विरोधात परिणामी आंबेडकरांच्याच विरोधात हा समाज जाऊ लागला .बाबासाहेबांनी त्याचवेळेस सांगितले होते कि,' बुद्ध धम्मात दीक्षा माझ्यासाठी नाही तर तुमच्या प्रगती साठी आहे .' पण बुद्ध धम्माच्या विरोधात जाऊन त्या लोकांनी आंबेडकरांच्याच नावावर त्याला खपवणे सुरु केले .आणि ते अद्ययावत सुरु आहे. विशेष म्हणजे स्वतःला सुशिक्षित म्हणणारा समाज हि यांच्या मागे जातो .पुढारी म्हणजे कोणते तर ज्याने ,बुद्ध , फुले ,कबीर , बाबासाहेबांचे  एकही पुस्तक ज्याने वाचले नसेल असे अनेक पुढारी आहेत .आणि ज्यांनी वाचले आहेत ते बिचारे तर फक्त बोलणार किंवा लिहिणार पण स्वतः काही मैदानात येणार नाही.
            भीमा तुझ्या मताचे जर पाच लोक असते तरवारीचे त्यांच्या न्यारेच टोक असते.मोठा प्रश्न पडतो कि इतके सारे स्वतःला आंबेडकरवादी म्हणणारे लोक क्रांती करू शकत नाही.तर त्या वेळेस लक्षात येते कि ,ह्या पैकी खोटारडे लोकांची संख्या खुपच जास्त होऊन बसली आहे . व ज्यांना क्रांती करायची इच्छा आहे त्यांना व्यवस्थित संघटना मिळत नाही.सर्व भ्रष्ट संघटना आहेत .यांच्यात चांगले माणसाचेहि मरण होत आहे .त्यांनी तर आशाच सोडलीय .बारकाईने विचार केला तर लक्षात येईल कि .खरे म्हणजे हे लोक धर्मांतर करायला तयारच नाहीत.हे फक्त नामांतर करायला तयार आहेत .म्हणूनच तर हे ज्या वेळेसहि कोणी यांना यांचा समाज विचारतो त्या वेळेस हे जयभीम सांगतात किंवा आंबेडकर सांगतात किंवा आंबेडकरवाद सांगतात .धर्मांतर त्यांनी केलेच नाही किंवा त्यांची आजही तशी मानसिकता नाही त्यासाठी काही उदाहरणे द्यावी लागतील.बाळाचे   नाव ठेवतांना ब्राम्हणाला विचारने,लग्नाचा मुहूर्त पाहणे ,शनीला घाबरणे ,सटवी चे तायीत बांधणे,करदोरा घालणे(लाल किंवा काला ) , लग्नात बाबासाहेबाचा व बुद्धाचा फोटो ठेवणे पण मंगळसूत्र घालणे ,बाजा लावणे ,हळद लावणे , देवांचे फोटो, मूर्ती घरात ठेवणे ,भिक्शुला लग्न लावायला लावणे ,जोडू घालणे वगैरे वगैरे  ह्या सर्व हिंदू धर्माच्या प्रथा आहेत पण हे लोक मानतात म्हणजेच हेच लोक बाबासाहेबांच्या विचारांना पहिले लाथ मारतात .आणि वरून आंबेडकरवादाचा आव आणतात .
               या सारखे कित्येक विषय आहेत .हा छोटासा खटाटोप त्यांच्या साठी आहे जे लोक आंबेडकरांशी बेईमानी करत आहेत कृपा करून त्यांना माझी विनंती ह्या सारखे प्रकार सोडा आणि आंबेडकरांचे कार्य पुढे जाईल या साठी पाउल उचलन्याकडे लक्ष द्या .आंबेडकरांच्या डोक्यावर अस्पृश्यतेचा कलंक धुवून काढायचा बाकी आहे.वेळ अजून गेलेली नाही ,आणि कृपा करून असा समज करू नये कि मी फक्त लिहिलेय तर हि माझी उठावाची सुरुवात आहे .